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________________ २६ - धर्म के बराललए पीड़ाएं दी जाती हैं, जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं; 'बहुविधि करै' में वे सब आ जाती हैं। पीड़ा देने के जितने प्रकार आप कल्पना कर सकें, करिए; वे सब 'बहुविधि करै' में प्रा जावेंगे। फिर भी क्रोध न करें तब उत्तमक्षमा होगी, ऐसा कवि कहना चाहता है । बात यहीं पर समाप्त नहीं हुई, आगे भी बढ़ती है : "धरतें निकारै तन विदार, बैर जो न तहां धरै।" कोई दुष्ट अनेक प्रकार पीड़ाएं दे देकर चला जाए, पर बाद में हम घर में रहकर उपचार और पाराम तो कर सकते हैं, पर जब वह हमें घर से ही निकाल दे, तब क्या करें? घर से भी निकाल दे, पर शरीर स्वस्थ है तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ करके जीवन चला ही लेंगे। पर जब वह घर से भी निकाल दे और शरीर का भी विदारण कर दे, तब तो क्रोध आ ही जावेगा। नहीं भाई ! तब भी क्रोध न आवे तो उत्तमक्षमा है। तब भी कहाँ ? मान लो क्रोध नहीं किया, पर मन में गाँठ बांध ली, बैर धारण कर लिया तो भी उत्तमक्षमा नहीं है। क्रोध और बैर के बारे में पहले स्पष्टीकरण किया जा चुका है। क्रोध किया जाता है और बैर धारण किया जाता है अर्थात क्रोध में तत्काल प्रतिक्रिया होती है और बैर में मन में गाँठ बाँध ली जाती है । बैर आग है और आग जहाँ रखी जाएगी पहिले उसे जलाएगी, बाद में दूसरे को जलाए चाहे न जलाए । अत: बैर भी-जो धारण करता है, उसे ही जलाता है। जिसके प्रति बैर धारण किया है, उसे चाहे जला पाये अथवा नहीं भी; क्योंकि उसका भला-बुरा तो उसके पुण्य-पाप के उदय के प्राधीन है। अतः यहाँ क्रोध के अभाव के साथ-साथ बैर के प्रभाव को उत्तमक्षमा कहा है। पर ये सब बातें व्यवहार की हैं । निश्चय से तो बाह्य निमित्तों की प्रतिकूलतानो पर भी मात्र क्रोध की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देना उत्तमक्षमा नहीं है। हो सकता है कि बाह्य में क्रोधादि की प्रवृत्ति न भी दिखाई दे और अन्तर में उत्तमक्षमा का विरोधी क्रोधभाव विद्यमान हो- तथा अन्तर में आंशिक उत्तमक्षमा विद्यमान रहे, फिर भी बाह्य में क्रोधादि में प्रवृत्ति दिखाई दे। अतः निश्चय उत्तमक्षमा समझने के लिए कुछ गहराई में जाना होगा।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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