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________________ उत्तम प्राचिन्य 0 १४६ पुण्यात्मा कह दिया गया है। भाग्यशाली तो उसे सारी दुनियां कहती ही है। हिंसक को कोई पुण्यात्मा नहीं कहता, असत्यवादी और चोर भी पापी ही कहे जाते हैं । इसीप्रकार व्यभिचारी भी जगत की दृष्टि में पापी ही गिना जाता है । जब उक्त चारों पापों के कर्ता पापी माने जाते हैं, तब न जाने परिग्रही को पूण्यात्मा, भाग्यशाली क्यों कहा जाता है ? कुछ लोग तो उन्हें धर्मात्मा तक कह देते हैं । धर्मात्मा ही क्यों, न जाने क्या-क्या कह देते हैं ? तभी तो भर्तृहरि को लिखना पड़ा : यस्यास्ति वित्नं म नर: कुलीन:, स पण्डितः स श्रुतवान् गुग्गज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।।४१।।' जिमके पास धन है - वही कुलीन (अच्छे कुल में उत्पन्न) है, वही विद्वान है, वही शास्त्रज्ञ है, वही गुगगों का जानकार है, वही वक्ता है, और वही दर्शनीय भी है; क्योंकि सब गुण मुवर्ग (धन) में ही प्राश्रय प्राप्त करते हैं । तो क्या परिग्रही को पुण्यात्मा अकारण कहा जाता है ? ऊपर मे तो ऐसा ही लगता है, पर गहराई मे विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसका भी कारण है और वह यह है कि हिंसादिपाप - कारण, स्वरूप एवं फल-तीनों ही रूप में पापस्वरूप ही हैं; क्योंकि उनके कारण भी पापभाव हैं, वे पापभावस्वरूप तो हैं ही, तथा उनका फल भी पाप का बंध ही है। किन्तु परिग्रह में विशेषकर बाह्य परिग्रह के दृष्टिकोण मे देखने पर इनमें अन्तर पा जाता है। बाह्य-विभूतिरूप परिग्रह का कारगा पुण्योदय है, पर है वह पापस्वरूप ही; फिर भी यदि उसे भोग में लिया जाय तो पापबंध का कारण बनता है, किन्तु यदि शुभभावपूर्वक शुभकार्य में लगा दिया जाय तो पुण्यवंध का कारण बन जाता है। कहा भी है : ___ 'बहुधन बुराहू, भला कहिए लीन पर-उपगार सों'।' ' नीतिशतक, छन्द ४१ २ दशलक्षण पूजन, प्राकिंवन्यधर्म का छन्द -
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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