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________________ . उत्तम पाकिंवन्य ०११ यद्यपि मानना छोड़ना (मत परिवर्तन) बहुत बड़ा त्याग है, काम है; तथापि इस जगत को इसमें कुछ छोड़ा-ऐसा लगता ही नहीं है । यदि दश-पाँच लाख रुपये छोड़े, स्त्री-पुत्रादि को छोड़े, तो कुछ छोड़ा-सा लगता है। पर इन्हीं रुपयों को, स्त्री-पुत्रादि को अपना मानना छोड़े तो कुछ छोड़ा-सा नहीं लगता । यह सब मिथ्यात्व नामक परिग्रह की ही महिमा है । उसी के कारण जगत को ऐसा लगता है। अरे भाई ! यदि पर को अपना मानना छोड़े बिना उसे छोड़ भी दे, तो वह छूटेगा नहीं। पर को छोड़ने के लिए अथवा पर से छूटने के लिए सर्वप्रथम उसे अपना मानना छोड़ना होगा, तभी कालान्तर में वह छूटेगा। वह छूटेगा क्या, वह तो छूटा हुआ ही है। वस्तुतः यह जीव बलात् उसे अपना मान रहा है। अतः गहराई से विचार करें तो उसे अपना मानना ही छोड़ना है। जगत के पदार्थ तो जगत में रहते हैं और रहेंगे- उन्हें क्या छोड़ें और कैसे छोड़ें? उन्हें अपना मानना और ममत्व करना ही तो छोड़ना है। देह को अपना मानना छोड़ने से, ममत्व छोड़ने से, उससे राग छूट जाने पर भी तत्काल देह छूट नहीं जाती; देह का परिग्रह छूट जाता है। देह तो समय पर अपने-माप छूटती है; पर देह में एकत्व और रागादि-त्यागी को फिर दुवारा देह धारण नहीं करनी पड़ती और जो लोग इससे एकत्व और राग नहीं छोड़ते हैं, उन्हें बार-बार देह धारण करनी पड़ती है। यहाँ कोई कहे कि जिसप्रकार देह को नहीं, देह को अपना मानना छोड़ना है, देह से राग छोड़ना है, देह तो समय पर अपने-पाप छूट जावेगी; उसीप्रकार हम मकान तो दश-दश रखें, पर उनसे ममत्व नहीं रखें, तो क्या मकान का परिग्रह नहीं होगा ? यदि हाँ, तो फिर हम मकान तो खूब रखेंगे, बस उनसे ममत्व नहीं रखेंगे। उससे कहते हैं कि भाई जरा विचार तो करो! यदि तुम मकान से ममत्व नहीं रखोगे तो मिथ्यात्व नामक अतरंग परिग्रह छूटेगा, मकान (वास्तु) नामक बहिरंग परिग्रह नहीं। क्योंकि मकानादिरूप बाह्य परिग्रह तो प्रत्याख्यान सम्बन्धी राग (लोभादि) रूप अंतरंग परिग्रह के छूटने पर छूटता है एवं अप्रत्याख्यान सम्बन्धी राग (लोभादि) रूप अंतरंग परिग्रह छूटने पर मकानादि बाह्य परिग्रह
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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