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________________ उत्तम प्राचिन्य 0 १३९ आज आहार लेने लगे हैं । अन्यथा जिन्होंने अपनी कमाई के साधन मोमिन कर लिए, उनके भी सम्पत्ति बढ़ते जाने का प्रश्न ही कहाँ उठना है ? व्रतियों को महाव्रतियों का भार उठाना था, पर उन्होंने तो अपना भार अवतियों पर डाल दिया है । यही कारण है कि महाव्रतियों को अनुदिष्ट आहार मिलना बन्द हो गया है । क्योंकि अव्रती तो उतना शुद्ध भोजन करते ही नहीं कि ये मनिगज के उद्देश्य के बिना बनाके उन्हें दे सकें। व्रती अवश्य ऐसा भोजन करते हैं कि वे अपने लिए बनाए गए भोजन को मुनिराजों को दे सकते हैं, पर वे तो लेने वाले हो गए। जो कुछ भी हो, प्रकृत में तो मात्र यह विचारना है कि रुपयेपैसों को पागम में चौबीस परिग्रहों में पृथक स्थान क्यों नहीं दिया ? वैसे वह धन में आ ही जाता है। यदि रुपये-पम को ही परिग्रह मानें तो फिर देवों, नारकियों और निर्यचों में तो परिग्रह होगा ही नहीं, क्योंकि उनके पास तो रुपया-पंसा देखने में हो नहीं पाता। उनमें तो मुद्रा का व्यवहार ही नहीं है, उन्हें इस व्यवहार का कोई प्रयोजन भी नहीं है; पर उनके परिग्रह का त्याग तो नहीं है। इनीप्रकार धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों को ही परिग्रह मानें तो फिर पशुओं को अपरिग्रही मानना होगा, क्योंकि उनके पास बाह्य परिग्रह देखने में नहीं पाता । धन-धान्य, मकानादि संग्रह का व्यवहार नो मुख्यतः मनुष्य व्यवहार है। मनुष्यों में भी पुण्य का गोग न होने पर धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह कम देखा जाता है तो क्या वे परिग्रहत्यागी हो गये ? नहीं, कदापि नहीं। __ जब आत्मा के धर्म और अधर्म की चर्चा चलती है तो उनकी परिभाषायें ऐमी होनी चाहिये कि वे सभी प्रात्माओं पर समान रूप से घटित हों। यही कारण है कि आचार्यों ने अंतरंग परिग्रह के त्याग पर विशेष वल दिया है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा है :बाहिरगंथविहीणा दलिद्दमणुवा सहावदो होति । अन्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदेको विठंडे, ।।३८७॥ बाह्य परिग्रह से रहित दरिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किन्तु अंतरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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