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________________ उत्तम प्राचिन्य ज्ञानानंदस्वभावी प्रात्मा को छोड़कर किंचितमात्र भी परपदार्थ तथा पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष के भाव मात्मा के नहीं हैं- ऐसा जानना, मानना और ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा के आश्रय से उनसे विरत होना, उन्हें छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्यधर्म है। आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य को दशधर्मों का सार एवं चतुर्गति दुःखों से निकालकर मुक्ति में पहुँचा देने वाला महानधर्म कहा गया है : आकिंचन, ब्रह्मचर्य धर्म दश सार हैं। चहुँगति दुःखतें काढ़ि मुकति करतार हैं ।।' वस्तुतः आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य एक सिक्के के दो पहलू हैं । ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को ही निज मानना, जानना और उसी में जम जाना, रम जाना, समा जाना, लीन हो जाना ब्रह्मचर्य है और उससे भिन्न परपदार्थों एवं उनके लक्ष्य से उत्पन्न होने वाले चिद्विकारों को अपना नहीं मानना, नहीं जानना और उनमें लीन नहीं होना ही आकिंचन्य है। यदि स्वलीनता ब्रह्मचर्य है तो पर में एकत्वबुद्धि और लीनता का प्रभाव आकिंचन्य है । प्रतः जिसे अस्ति से ब्रह्मचर्यधर्म कहा जाता है उसे ही नास्ति से आकिंचन्यधर्म कहा गया है। इसप्रकार स्व-अस्ति ब्रह्मचर्य है और पर की नास्ति आकिंचन्य । ब्रह्मचर्यधर्म की चर्चा तो स्वतन्त्र रूप से होगी ही, यहाँ तो अभी आकिंचन्यधर्म के सम्बन्ध में विचार अपेक्षित है। जिसप्रकार क्षमा का विरोधी क्रोध, मार्दव का विरोधी मान है; उसीप्रकार प्राकिचन्यधर्म का विरोधी परिग्रह है अर्थात पाकिचन्य के प्रभाव को परिग्रह अथवा परिग्रह के प्रभाव को आकिंचन्यधर्म कहा जाता है । अतः प्राकिंचन्य का दूसरा नाम अपरिग्रह भी हो सकता है। ' दशलक्षण पूजन, स्थापना
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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