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________________ १२८० धर्म के मालाण जनता दान का सही स्वरूप समझ लेगी तो ये धार्मिक संस्थायें बंद नहीं होंगी, दुगुनी-चौगुनी चलेंगी। दान भी मान के लिए अभी जितना निकालते हैं, उससे दुगना-चौगुना निकलेगा। हाँ, धर्म के नाम पर धंधा करने वाली नकली संस्थाएं अवश्य बंद हो जावेंगी। सो उन्हें तो समाप्त होना ही चाहिए। संक्लेश परिणामों से दिया गया चन्दा दान नहीं हो सकता। दान तो उत्साहपूर्वक विशुद्धभावों से दिया जाता है। दान के फल का निरूपण करते हुए कहा गया है :'दान देय मन हरष विशेखे, इस भव जस परभव सुख देखे। यहाँ दान का फल इस भव में यश एवं प्रागामी भव में सुख की प्राप्ति लिखा है, मोक्ष की प्राप्ति नहीं लिखा । तथा दान देने के साथ 'विशेष हर्ष' की शर्त भी लगाई गई है। उत्साहपूर्वक विशेष प्रसन्नता के साथ दिया गया दान ही फलदायी होता है, किसी के दबाव या यशादि के लोभ से दिया गया दान वांछित फल नहीं देता। योग्य पात्र को देखकर दातार को ऐसी प्रसन्नता होनी चाहिए जैसी कि ग्राहक को देखकर दुकानदार को होती है । संक्लेश परिणामपूर्वक अनुत्साह से दिये गए दान से धर्म तो बहुत दूर, पुण्य भी नहीं होता। बिना मांगे दिया गया दान सर्वोत्कृष्ट है, मांगने पर दिया गया दान भी न देने से कुछ ठीक है। पर जोर-जबरदस्ती से अनुत्साहपूर्वक देना तो दान ही नहीं है । कहा भी है : बिन मांगे दे दूध बराबर, मांगे दे सो पानी । वह देना है खून बराबर, जामें खींचातानी ॥ खींचातानी के बाद देने वाले को इस लोक में यश भी नहीं मिलता और पुण्य का बंध नहीं होने से परभव में सुख मिलने का भी सवाल नहीं उठता। नहीं देने पर तो अपयश होता ही है, खींचतान के बाद दे देने पर भी लोग उसकी मजाक ही उड़ाते हैं। कहते हैं भाई! तुमने पाडा दुह लिया है । हम तो समझते थे वे कुछ नहीं देंगे, पर तुम ले ही पाये। यशादि के लोभ के बिना धर्मप्रभावना, तत्त्वप्रचार प्रादि के लिए उत्साहपूर्वक दिया गया रुपये-पैसे आदि सम्पत्ति का दान; मुनिराज मादि योग्य पात्रों को दिया गया माहारादि का दान; १. कविवर बानतराय : सोलहकारण पूजा, जयमाला
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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