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________________ १२२ ० धर्म के दशलक्षण और औषधिदान में आहार और प्रौषधि के त्यागने का (नहीं खाने का) भी प्रश्न नहीं उठता। पाहारदान दीजिए और स्वयं भी खूब खाइये, कोई रोक-टोक नहीं; पर आहार का त्याग किया तो फिर खाना-पीना नहीं चलेगा। आहार और औषधि के सम्बन्ध में कहीं कुछ अधिक अटपटा नहीं भी लगे, किन्तु जब 'ज्ञानदान' के स्थान पर 'जानत्याग' शब्द का प्रयोग किया जाए तो बात एकदम अटपटी लगेगी। क्या ज्ञान का भी त्याग किया जाता है ? क्या ज्ञान भी त्यागने योग्य है ? क्या ज्ञान का त्याग किया भी जा सकता है ? इसीप्रकार की बात अभयदान और अभयत्याग के बारे में समझना चाहिए। एक बात और भी समझ लीजिये। दान में कम से कम दो पार्टी चाहिए और दोनों को जोड़ने वाला माल भी चाहिए । प्राहार देने वाला, आहार लेने वाला और आहार; औषधि देने वाला, औषधि लेने वाला और औषधि- इन तीनों के बिना आहाग्दान या औषधिदान संभव नहीं है । यदि लेने वाला नहीं तो देंगे किसे ? यदि वस्तु न हो तो देंगे क्या? पर त्याग के लिए कुछ नहीं चाहिये। जो अपने पास नहीं है - त्याग उसका भी किया जा सकता है । जैसे 'मैं शादी नहीं करूंगा' इसमें किस वस्तु का त्याग हुआ? शादी का । लेकिन शादी की ही कहाँ है ? जब शादी की ही नहीं तो त्याग किसका? करने के भाव का। ___इसीप्रकार सर्व परिग्रह का त्याग होता है, पर सर्व परपदार्थरूप परिग्रह है कहाँ हमारे पास ? अतः उसके ग्रहण करने के भाव का ही त्याग होता है। त्याग के लिए हम पूर्णतः स्वतन्त्र हैं। उममें हम जिसे त्यागें, उसे लेने वाला नहीं चाहिए, वस्तु भी नहीं चाहिए। इसप्रकार हम देखते हैं कि दान एक पराधीन क्रिया है, जबकि त्याग पूर्णतः स्वाधीन । जो क्रिया दूसरों के बिना सम्पन्न न हो सके, वह धर्म नहीं हो सकती। धर्म पर के संयोग का नाम नहीं, अपितु वियोग का है । कम से कम त्यागधर्म में तो पर के संयोग की अपेक्षा सम्भव नहीं है; त्याग शब्द ही वियोगवाची है । यद्यपि इसमें शुद्धपरिणति सम्मिलित है, परन्तु पर का संयोग बिल्कुल नहीं।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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