SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिक रिचार्ड से पुष्प माल्पादिक की नाई वियोगका लड्रमैंडः खनद) उपते है। शाजे से वनमें वलवान क्षुधावान व्याघ् करियक खामृगकाव चाकूंको ऊसरणनही । तैसें जन्ममरणव्याधिति के संकर रूपपरिचमण करतेषार्थीके कोऊदेवदानवमंत्रयंत्रतंत्र योगिनीय क्षेत्रपालादिशर नही है। पुष्ट शरीरनोजनप्रति सहाई है। कष्ट आए-आत्माकूं महादुःख उपजावैहै। -अखंडेयन्नकरिसंचयकी याधनपरलोक नही जायदे। बांधवा मित्रादिकरू रोगकुं प्रावर्तेन थामर एकं आवर्तनही रक्षा करेंहै, विषय भोगभोजनादिक वढावदै ॥ औरइःखमें को अपना नही। कर्मक दयतैरोकने को समर्थ नहीं है। सम्यक आचरएकी या धर्म ही एक्झर है। मृत्यु के प्राक्तैशदिक कोऊनशरनही। सैंभावना करणं सोप्रसर चानुपक्षदि जैसे मैं हूं। जैसे चितवन करने ते संसार के पदार्थनिम
SR No.010804
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy