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________________ 18 छे. तेमां पण अनंतानुबन्धीना विसंयोजको छे. तेमां नारक अने देव अविरत सम्यग्दृष्टिओ छे, तथा तिर्यंचो अविरत देशविरत छे. 3 आचा० मनुष्यो अविरत देश विरत प्रमत्त अप्रमत्त छे. ए वधा पण यथा संभव विशोधि विवेक बडे परिणत थयेला अनंतानुबन्धीनी विसंयोजना माटे पूर्व कहेल करण त्रण करे छे.. सूत्रम् ॥८१०॥15| तेमां पण अनंतानुबन्धीनी स्थितिने अपवर्तन करतो पल्योपमना असंख्येय भाग मात्र बनावे छे. अने पल्योपमना असंख्येय भाग १८१०॥ जेटली मोह प्रकृतिओ जे बन्धाय छे, तेने प्रति समये सङ्क्रमावे छे. तेमां पण प्रथम समये स्तोक अने त्यार पछीना समयोमा असंख्येय गुण सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे छेल्ला समयमां वधासमवडे आवलिका जेटलाने छोडी वाकोनी सर्व सङ्क्रमावे छे.अने पछी आ-0 वलिकामा रहेल पण स्तिबुक सङ्क्रमवडे वेदांती वीजी प्रकृतिओमां सङ्क्रमावे छे.ए प्रमाणे अनंतानुबन्धी कपायो विसंयोजित थायछे. दर्शन त्रिकनी उपशमना.-तेमां मिथ्याखनो उपशमक मिथ्यादृष्टि छे, अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि छे पण सम्यक्त्व के सम्यग & मिथ्याखनो वेदक तेज उपशमक छे. तेमां भिथ्याखनो उपशम करतो तेनु अंतर करीने प्रथम स्थितिने विपाकबडे भोगवीने मिथ्याखनो उपशम करतो, उपशांत मिथ्याखी वने छे. अने उपशम सम्यग्दृष्टि थाय छे. हवे वेदक सम्यग्दृष्टि जीर उपशम श्रेणीने स्वीकारतो अनंतानुबन्धीने वीसं. योजीने संयममा रहेलो आ विधिए दर्शनत्रिकने उपशमावे छे तेमां यथा प्रवृत्त विगेरे पहेला बतावेल त्रण करणोने करीने अंतर-8 व करण करतो वेदक सम्यक्त्वनी पहेली स्थितिने अंतर्मुहर्तनी बनावे छे. अने बाकीनी आवलिका मात्र बनावे छे. त्यार पछी थोडी ओछी एवी मुहूर्त मात्रनी स्थिति खंड खंड करीने वध्यमान प्रकृतिओने स्थितिवन्ध मात्र काळवडे ते कर्मना दळियाने सम्यक्त्वनी MARACT
SR No.010803
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrabahu, Shilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages890
LanguagePrakrit, Sanskrit, Gujarati
ClassificationManuscript, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size40 MB
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