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________________ 4- आचा० ॥५९२॥ 153465 विराधनानो संभव छे. २] श्रुतथी अव्यक्त पण वयथी व्यक्त छे, तेने पण अगीतार्थपणाथी संयम तथा आत्म विराधनानो संभव होवाथी एकल है विहारनो निषेध छे. सूत्रम् [३] तथा श्रुतथी व्यक्त पण वयथी अव्यक्त होय तेने पण वाळकपणाथी सर्व प्रकारे पर भवना कारणे अने विशेषथी चोर तथा n५९२॥ कुलिंगि (अन्य दर्शनी वावा विगेरे) नो भय छे, तेथी तेने पण एकलविहार न कल्पे. ४] पण जे बन्ने प्रकारे व्यक्त छे, तेने कारण पडे अथवा प्रतिमा स्वीकारी होय, अथवा (उचित्त सोबतीना अभावे) एकल* विहार करवो पडे तो करे, आवाने पण कारणना अभावमां एकलविहारनी आज्ञा आपी नथी. कारण के ते एकलविहारमा इर्या समिति तथा गुप्ति विगेरेमा घणा दोषो थाय छे, ते वतावे छे. [१] एकलो भमतां जे इर्यापथ (मार्ग) जोतो चाले, तेने पछवाडे कूतरा विगेरेनुं देखq बनी शके नहीं, अने कतरा विगेरेने देखवा जाय तो इर्या पथर्नु भान न रहे, ए प्रमाणे चधी समितिओनुं जाणी लेवू, वळी अजीर्णना कारणे अथवा वायुना रोकबाथी अथवा रोगो उत्पन्न थतां संयम तथा आत्मानी विराधना थाय. तेथी जैन शासननी पण हीलना थाय, तथा तेना उपर दया लावीने गृहस्थो तेनी चाकरी करे, तो अज्ञानपणाथी छकायर्नु उपमर्दन करतां संयमने बाधा उपजावशे, अने तेवो दयाल गृहस्थ न मळे तो दवा न करवाथी ते साधुनी आत्मविराधना थाय, तथा अतिसार (झाडा) विगेरेमां पेशाब झाडा, विगेरेथी कपडा तथा शरीर खरडाइ जवाथी दुर्गच्छा आवतां लोको जैन धर्मनी हीलना [निंदा करे, वळी गामडा विगेरेमा रहेता ब्राह्मण विगेरे केश लुंचन विगेरेथी
SR No.010803
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrabahu, Shilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages890
LanguagePrakrit, Sanskrit, Gujarati
ClassificationManuscript, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size40 MB
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