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आचा०
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नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञान महारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥
आ जगतमां जे अज्ञानरूपी महारोग सर्वे जीवोने दःखे करीने दूर थाय तेत्रो असाध्य छे, तेनाथी बीजुं दुःखनुं कारण हुं | मानतो नथी, विगेरे छे. अहिंआं सुतेला वे प्रकारना छे, द्रव्यथी अने भावथी तेमां निद्रा प्रमादवाळा द्रव्यथी सुता छे। अने मिध्यात्व | अने अज्ञानरुप महानिद्राथी मूढ वनेला जेओ मिथ्यादृष्टि (मोक्ष मार्गथी विमुख) अमुनि छे. तेओ निरंतर भावथी सुतेला जाणवा, कारणके तेओ (सर्व जीवोने अभय दान आपका रूप ) सम्यकज्ञान तथा चारित्रनी क्रियाथी रहित छे. पण निद्रामां पडेलानुं आ प्रमाणे समजवुं के वखते मिथ्यादृष्टि होह अने सम्यक् दृष्टि पण होय, आ अम्मुनि माटे बतान्युं हवे मुनिओनुं वर्णन करे छे. तेओ | हमेशां सुबोधथी युक्त अने मोक्षमार्गथी चलायमान थता नथी पण निरंतर हितने मेळववा अहितने छोड़वा. संयम पाळवा प्रयास करे तेथी तेओ जागता छे अने शरीरनी स्वभाविक अशक्तिथी द्रव्य निद्रा तेओने होय (सुवे ) तो पण रातना नवथी ऋण वाग्या सुधी | शास्त्रमां बतावेली विधए सुवाथी तथा अल्प निद्राथी तेओ जागताज छे, आज भाव स्वाप ( सुबुं ) तथा जागरण करवुं ते संबंधी नियुक्तिकार गाथा कहे छे:
सुत्ता अमुणिओसया मुणिओ सुत्ता वि जागरा हुति । धम्मं पडुच्च एवं निद्दासुतेण भइयां ॥ नि. २१२ ॥
द्रव्यथी अने भावथी वन्ने प्रकारे सुता छे, तेमां निद्राथी सुतेलानुं वर्णन पछी कहेशे अने भावथी सुतेलानुं पहेलां कहे छे. ओ अमुनि (गृहस्थो ) मिथ्यात्वथी तथा अज्ञानथी घेराइने हिंसा विगेरे पांच आस्रव सदा वर्ते छे, तेओ भावथी सुतेला छे. अने
सूत्रम्
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