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इय जुज्झताण खणेण चेव जाओ जमो विरलसेन्नो। तो बंधिऊण निवविक्कमेण गहिओ हढेणेसो॥ दीणे हिं वयणेहिं पभणइ देवेण मह वरो दिन्नो । तस्स बलेणं एयं पावेण मए कयं सव्वं ॥१३६॥ नवरं तस्स वि एयं पज्जवसाणं वरस्स ता इहि । मंच पसायं काउं न पुणो एवं करिस्सामि ॥१३७॥ | निवविक्कमेण भणियं मणिमंतोसहिसुरादिया चेव । होंति सफला न मुच्चइ पुरिसो जा निययपुन्नेहिं ॥
नासंति चक्किणो वि ह तब्विगमे सोलसामरसहस्सा।
रयणनिवहोऽवि जायइ विहलो को एत्थ पडिबंधो ॥१३९।। किंतु न पहरेमि अहं सत्तूसु वि दीणयं पवन्नेसु । इय मुक्को सि करेजसु पुणोऽवि जं सिक्खियं तुमए॥ दाऊण कणयतुरयाइ किंपि सम्माणिऊण सो मुक्को । निवविक्कमोऽवि वलिउ पत्तो नियरायहाणीए ॥ पालइ य महिं सोक्खेण तम्मि निद्देसकारए जक्खे | बहुसुरजुए कुणंते सन्निज्झं विसमकजेसु ॥१४२॥ बाहिं निग्गच्छंतो नयराओ अन्नया स नरनाहो । वरकुंजरखंधगओ नरवरभडकोडिपरियरिओ ॥१४३॥ ऊसियतोरणमालं सित्तं घणघुसिणचंदणरसेण पेच्छइ गेहं इन्भस्स नयरसेट्टिस्त धणयस्स ।।१४४॥
पमुइयचित्तो पविसइ य तत्थ सिंगारिओ नयरलोओ । गहियाक्खवत्तवररयणकणयमणिनिम्मियाहरणो ॥१४५।।
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