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________________ सिद्ध योजन एक चहूँ दिशा, हो वाणी विस्तार। श्रवरण सुनत भविजन लहै, प्रानंदहियेअपार ॥ॐ ह्रींग्रहंयोजनव्यापिगिरे नम प्रय॑ । ३०५६ निर्मल क्षीर समान है, गौर श्वेत तुम बैन। पाप मलिनता रहित है, सत्य प्रकाशक ऐन ॥ॐ ह्रीं अर्हक्षीरगौरगिरे नम अर्घ्य ३४७ ६ तीर्थ तत्त्व जो नहीं तजै, तारण भविजन वान। यातें तीर्थंकर प्रभू, नमत पाप मल हान ॥ॐ ह्री प्रहं तीर्थतत्त्वगिरे नम प्रध्यं ।।३४८1 । उत्तमार्थ पर्याय करि, प्रात्म तत्त्वको जान। । सो तुम सत्यारथ कहो, मुनिजन उत्तम मान ॥ॐ ह्री ग्रहपरमार्थगवेनम अयं ३४६ ॥ भिव्यनिको श्रवणनि सुखद, तुम वाणी सुख देन । मै बंदू हूँ भावसों, धर्म बतायो एन॥ॐ ह्री ग्रह भव्यकश्रवणगिरे नम:अयं ।.३५०॥ ई संशय विभूम मोहको, नाश करो निर्मूल । सत्य वचन परमारण तुम, छेदत मिथ्या शूल ॥ॐ ह्रीं महं सद्गवे नम अध्यं ॥३५१। पूजा तुम वाणीमे प्रकट है, सब सामान्य विशेष । नानाविध सुन तर्कमे, संशय रहै न शेष ॥ॐ ह्री अहं चित्रगवे नमःमध्यं ॥३५२।। अष्टम
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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