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________________ नहीं चलाचल होठ हो, जिस वारणी के होत । सिद्ध सो मैं बंदू हों किया, मोक्षमार्ग उद्योत ॥ ह्रीं ग्रहं प्रचलोष्ठवाचे नमःप्रर्घ्यं । ३३२ । तुम सन्तान श्रनादि है, शाश्वत नित्य स्वरूप । वि० ३०३ तुमको बंदू भावसो, पाऊँ शिव-सुख कूप ॥ॐ ह्रीं श्रीं प्रशाश्वताय नमः ग्रध्यं । ३३३ । हीनादिक वा और विधि, नहीं विरुद्धता जान । एक रूप सामान्य है, सब ही सुखकी खान ॥ ॐ ह्री ग्रहं प्रविरुद्धाय नम अर्घ्यं ॥ ३३४॥ नय विवक्षते सधत है, सप्त भंग निरवाध । भानमत हूँ, वस्तु रूपको साध ॥ॐ ह्री श्रीँ मप्तभगीवाचे मम ग्रर्घ्यं । अक्षर विन वारणी खिरे, सर्व श्रर्थ करि युक्तं । भविजन निज सरधानतें, पावै जगतें मुक्त ॥ ह्रीं श्रीं श्रवणगिरे नम अर्घ्यं । ३३६ क्षुद्र तथा क्षुद्र मय, सब भाषा परकाश । तुम मुखतेंखिर करें, भर्म तिमिरको नाश ॥होम्रर्हं मर्वभाषामयगिरे नम श्रर्घ्यं । अष्टम पूजा ३०३ कहने योग्य समर्थ सब, अर्थ करै परकाश । तुम वाणी मुखतै खिरे, करै भरम तमनाश ॥ ह्री ग्रहं व्यक्तिगिरे नमः श्रयं ॥३३८।। wwwwww
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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