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________________ सिद्ध मत्सर भाव दुखी करे, निजानन्द को घात । सोतुमनाशो छिनकमें,शम सुखियाकहलात ॥४ह्री ग्रह निरस्तमत्सरायनमःप्रयं । परकृत भाव न लेश है, भेद कहयो नहिं जाय। वचन अगोचर शुद्ध हैं, सिद्ध महा सुखदाय ॥ ह्रीं ग्रह शुद्वाय नम मध्यं ॥७३॥ रागादिक मल बिन दिपो, शुद्ध सुवर्ण समान। शुद्धनिरंजन पदलियो, नमूचरण धरिध्यान॥ ह्रीमह निरजनायनम प्रध्यं ।७५६ ज्ञानावर्णी आदि ले, चार घतिया कर्म। तिनको अंत खिपाइके,लियो मोक्षपद पर्म॥ ह्रींप्रघातिकन्तिकाय नमाप्रयं ।।७६१ ज्ञानावरणी पटल विन, ज्ञान दीप्त परकाश। शुद्ध सिद्ध परमातमा, बंदित भवदुख नाश । ह्रीमह जिनदीप्तय नम अर्घ्य ।।७७॥ कर्म रुलावे आत्मा, रागादिक उपजाय । तिनको मर्म विनाशक, सिद्ध भये सुखदाय ॥ॐ ह्रीमह कर्मममभिदे नम अध्यं ७८॥ पाप कलाप न लेश है, शुद्धाशुद्ध विख्यात । पूजा मुनि मन मोहनरूप है, नमूजोरि जुग हाथ ॥ ह्रींग्रह अनुदयाय नम अध्यं ।।७।। अष्टम
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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