________________
सिद्ध
विक
२६४
तुम सम और न जगतमें, उत्तम श्रेष्ठ कहाय । आपतिरै पर तार ते, बंदू तिनके पाय ॥ॐ ह्री अहं जिनसत्तमाय नमः अध्यं ।।५८।। स्व पर कल्याणक हो प्रभू, पंचकल्याणक ईश। श्रीपति शिव-शंकर नमू,चरणाम्बुज धरिशीश ॥ॐ ह्रीमहंजिनप्रमवायनम'।५६। मोह महाबल दलमलो, विजय लक्ष्मीनाथ । परमज्योति शिवपद लहो,चरण नमू धरि माथ ॥ ॐ ह्रीग्रहपरमजिनायनम ।६।। चहँ गति दुःख विनाशिया, पूरा निज पुरुषार्थ । नम् सिद्ध कर-जोरिक,पाऊ मै सर्वार्थ ॥ ॐह्री अहं जिनचहुँगतिदुःखान्तकायनम ।६१॥ जीते कर्म निकृष्टको, श्रेष्ठ भये जिनदेव।
॥ ॐह्री महं जिनश्रेष्ठाय नम.अध्यं । ६२।। आप मोक्ष मग साधियो, औरन सुलभ कराय। आदि पुरुष तुम जगतमे, धर्म रीत वरताय ॥ॐ ह्रीं अहं जिनज्येष्ठायनम अध्यं ॥६३।। पूजा मुख्य पुरुषारथ मोक्ष है, साधत सुखिया होय । मैं बंदू तिन भक्तिकरि, सिद्ध कहावे सोय ॥ ॐह्री अहं जिनमुखाय नम अयं ।।६।।
अष्टम
२६४