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________________ सिद्ध० वि० २६० तीन लोक पूजत चरन, भाव सहित शिर नाय । इन्द्रादिक थुति करि थके, मै बंदू तिस पाय ॥४ह्री अर्हजिनाधिनाथायनमामय ३० तुम समान नहीं देव है, भविजन तारन हेत। चरणाम्बुज सेवत सुभग, पावै शिवसुखखेत ॥ ह्रीप्रर्ह जिनेन्द्रविवप्राय नम अध्यं ३१ भवातापकरि तप्त है, तिनकी विपति निवार । धर्मामृत कर पोषियो, वरते शशि उनहार॥ ॐह्री पहँ जिनचन्द्राय नम प्रध्यं ।।३२ः। मिथ्यातम करि अन्ध थे, तीन लोकके जीव। तत्त्व मार्ग प्रकटाइयो, रवि सम दीप्त अतीव ॥ॐ ह्रीअजिनादित्याय नम अध्यं ।३३ विन कारण तारण तरण, दीप्त रूप भगवान । इन्द्रादिक पूजत चरण, करत कर्मको हान ॥ह्री अहं जिनदीप्तरूपाय नम अयं ।३४ जैसे कुजर चक्रके, जाने दलको साज ॥ माज।।ॐ ह्री प्रहं जिनकुञ्जराय नम अध्यं ।३५। दीप्त रूप तिहुँ लोकमे, है प्रचण्ड परताप । भक्तनको नित देत है, भोगै शिवसुख प्राप॥ॐह्री महं जिनार्काय नम अयं ॥३६॥ अष्टम चार पूजा २६०
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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