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________________ उ। देवयपसायलद्धा तओ सुदक्खो नरो एगो॥४॥ भणिओ तेण जहेए पासे दीणारथालमेगं च। गिण्हित्तु भणाहि नुमं तियचचरचउमुहाईसु॥५॥ जो मं जिणाइ जूए सो दीणाराण जिणइ थालमिणं । अह कहवि जिणामि अहं तो दादीणारो ममं एगो॥६॥ एवं च सो पयट्टो निरंकुसो जूयमुद्धरं रमिउं। न कयाइ सो जिणिज्जइ जिणइ चिय सो परं अण्णे ॥७॥जह तस्स जओ दुलहो अइदक्खेणावि केणइ नरेण । तह मणुयत्तणभट्ठो दबो तस्स लंभम्मि ॥८॥ इति ॥ 181 अथ गाथाक्षरार्थः । यौगिको यन्त्रप्रयोगनिष्पन्नौ देवतावितीणों वा पाशको अक्षौ-ताभ्यामीप्सितपातेन रमणं क्रीलाउन प्रारब्धं, तथा दीनारपात्रीपणः कृतश्चाणक्यनियुक्तपुरुषेण, द्यूते तादृशे यथा चैव जयो दुर्लभोऽन्यस्य पुरुपस्य 2 धीरस्य बुद्धिमतो मानवस्य तथैव मनुजत्वं दुर्लभं प्रतिभासत इति ॥ ७॥ 51 अथ तृतीयदृष्टान्तसंग्रहगाथा;धणे त्ति भरहधण्णे सिद्धत्थगपत्थखेव थेरीए । अवगिंचणमेलणओ एमेव ठिओ मणुयलाभो ॥८॥ फिल कप्पणाइ केणवि सुरेण कोऊहलेण सवाई। धन्नाई मेलियाई भारहवासस्स तणयाई ॥१॥ एगो सरिसवपत्थो पक्तित्तो ताण मज्झयारम्मि । आलोडियाई ताई भणिया एगा तो थेरी ॥२॥ दुबलदेहा दालिदामिया किंचि 1 मिलिया।
SR No.010796
Book TitleUpdeshpad Mahagranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapvijay
PublisherMuktikamal Jain Mohan Mala
Publication Year1979
Total Pages1008
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size45 MB
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