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________________ सम्पादकीय प्रिय धर्मबन्धुवो। पापको सेवामे यह ग्रन्थ देते हुए मुझे परम हर्पका अनुभव हो रहा है कि मुमुक्षु जिज्ञासु भाइयोके लक्ष्यको पूर्तिमे सहायक इस ग्रन्यको पहुचानेमे सफल हुआ है। इस ग्रन्थको मूल गाथानोमे सक्षिप्त सिद्धान्त दर्शाया गया है। उसकी टीकामे कैसे वैराग्य जगता, कैसी क्रिया होनी चाहिये, सब 'क्रिगावोका मूल 'प्रयोजन अध्यात्मगमन कैसे बनता, चरणानुयोगको क्या उपयोगिता है, निमित्तनैमित्तिकयोग व वन्तुस्वातंत्र्यका कैसे अविरोध है, निमित्तनैमित्तिक योगका परिचय विभावसे हटनेमे कैसे सहयोगी है, वस्तुस्वातन्त्र्यका परिचय स्वभावके अभिमुख होनेमे कैसे सहयोगी है आदि तथ्योका परिचय हितकारी पद्धतिसे कराया गया है। इस ग्रन्यमे आध्यात्मिक एव सैद्धान्तिक अनेक रहस्योका अनेक प्रश्न व उत्तरोके रूप मे विशदीकरण है, जिसको पढने हुए ज्ञान व शुद्ध प्रानन्दका अनुभव होता चला जाता है । इस ग्रन्थका निर्माण अध्यात्मयोगी न्यायतीथं पूज्य श्री मनोहर जी वर्णी 'सहजानन्द महाराज' ने श्री प्रो० लक्ष्मीचन्द जी जैन एम. एस-सी. जबलपुर वालोके अध्ययनके निमित्त से किया है। प्रोफेसर साहबने बडी तत्परताके साथ सन् १९५६ के महाराज श्री के वर्षायोग मे महाराजको इग्लिशका अध्ययन कराया था, जिससे महाराज श्री भो आर्पग्रथोका इग्लिशमे एक्सपोजीशन भी लिखने लगे है। आजकल इग्लिशमे समयसारका एक्सपोजीशन लिखा भी जा रहा है । जिसमे से एक पुस्तक प्रकाशित भी हो गई है । आपने प्रोफेसर साहब की अद्भुत भावनासे आकर्पित होकर उनके अध्ययनके लिये इस ग्रन्थको रचना की है। इसमे कुल प्रश्नोत्तर २२३८ है । प्रश्नोत्तरोसे विषय सुगम और रोचक हो गया है। . . इसमे क्या क्या विषय है, इसको मैं यह इसलिये नही लिख रहा हूं कि इसको मैं सक्षेपमे क्या वाणूं, इसका तो आद्योपान्त अध्ययन करना ही चाहिये । आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थके अध्ययन, मननसे शान्तिका मार्ग अवश्य ही प्राप्त होगा। ---महावीरप्रसाद जैन, बैकर्स सदर, मेरठ (उ० प्र०)
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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