SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय (द्वितीय संस्करण) प्रिय अध्यात्मप्रेमी बन्धुवर । __ अनादि कालसे ससारमे परिभ्रमण करते-करते इम जीवने अनेक बार मनुष्यभव पाकर जैनधर्मरूपी अमृतका पान किया, परन्तु भव-भ्रमणसे छुटकारा न पाया, इसका मुख्य कारण था द्रव्यकी प्रतीतिका न होना। भव्य जीवकी इस जिज्ञासाको पूर्ण करनेके लिए 'द्रव्यसग्रह प्रश्नोत्तरी टीका' एक अनुपम रचना है, जिसका पूज्य गुरुवर्य्यने इस प्रकारसे सकलन किया है कि आध्यात्मिक बधु का इसको बार-बार मनन करनेपर भी छोडनेको जो नही चाहता।। प्रथम बार यह पुस्तक देखनेमे तब आई जब आजसे ३ वर्ष पहले श्री सुमेरचन्द जी जैन, सम्पादक 'वर्णी प्रवचन' मुजफ्फरनगरने मुझे इस अमूल्य ग्रन्थकी एक प्रति भेट की। इसका स्वाध्याय करके मैने कोटिशः धन्यवाद मन ही मन श्री सुमेरचन्द जी को दिया और पूज्य गुरुवर्यके प्रति श्रद्धा तो पहले ही थी, पर जितनी बार भी इस पुस्तकका अध्ययन करता था मन रोमाचित होकर गद्गद् हो जाता था। अतः मैने अपनी मेरठकी गोष्ठीमे इसको चर्चा एव विवेचन किया, जिसका यह अमर हुआ कि गोष्ठोमे उपस्थित स्त्री व पुरुपोकी बडी जिज्ञासा बढी और बहुत तलाश करनेपर भी दस बारह आदमियोके लिए मगो हुई दो प्रतिया उपलब्ध हो सकी। मनन ज्यो-ज्यो बढा, जिज्ञासा बढती गई और जब सब जगहसे निराश होकर थक गए तो मै श्री खेमचन्द जी जैन, मत्री 'श्री सहजानन्द शास्त्रमाला' के पास पहुचा, जिन्होने इसके पुनः छपवानेका भरसक प्रयत्न करनेका आश्वासन दिया । महाराजजी प्राजकल जबलपुर चातुर्मास कर रहे थे, अतः उनके आनेकी प्रतीक्षा की गई और उन्होने भी अपनी अनुमति देकर हमे कृतार्थ किया। प्रूफ रीडिगका भार मैने अपने ऊपर लिया, पूज्य गुरुवर्यकी आज्ञा हुई कि इस द्वितीय सस्करणका सम्पादन भी मेरे ही जिम्मे रहे । अतः यह ग्रथ आपके समक्ष उपस्थित है। मेरी लापरवाहीके कारण अगर इसमे त्रुटिया रह गई हो तो आप अपनी प्रतिमे ठीक करके मुझे सूचना देकर कृतार्थ करे। यह ग्रथ अत्यत उपयोगी है । इसके अध्ययन में आपको जो पानद आएगा वह निश्चय ही आपको श्रेयोमार्गके सन्मुख कर देगा और तत्त्वज्ञानकी एक अद्वितीय प्रभा आपके अन्तरमे उत्पन्न होकर कल्याणका कारण होगी। ___ आपसे प्रार्थना है कि ग्रन्थमालाके अन्य प्रकाशनोका भी अध्ययन करके लाभ उठाये । विनीत -डा. नानकचन्द जैन २५१, गली पार्श्वनाथ, मौ० ठठेरवाडा, मेरठ शहर ।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy