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________________ ८२ युगवीर- निवन्धावली नवैः संदिग्धनिर्वाहैर्विदध्याद्गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥ यतः समयकार्यार्थो नानापचजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद्दूरतरो नरः । ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥ इन पद्योका आशय इस प्रकार है 'ऐसे-ऐसे नवीन मनुष्योसे अपनी जातिकी समूह - वृद्धि करनी चाहिये, जो सदिग्धनिर्वाह हैं -- जिनके विषयमे यह सदेह है कि वे जातिके आचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेंगे । ( और जव यह बात है तब ) किसी एक दोषके कारण कोई विद्वान् जातिसे बहिष्कारके योग्य कैसे हो सकता है ? चूँकि सिद्धान्ताचार - विषयक धर्म - कार्योंका प्रयोजन नाना पचजनोंके आश्रित है— उनके सहयोगसे सिद्ध होता है—अत समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमे लगाना चाहिये -- जातिसे पृथक् न करना चाहिये । यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिकी - खासकर विद्वान्‌की - उपेक्षा की जाती है— उसे जातिमे रखनेकी पर्वाह न करके जातिसे पृथक् किया जाता है तो उस उपेक्षासे वह मनुष्य तत्त्वसे बहुत दूर जा पडता है । तत्त्वसे दूर जा पड़नेके कारण उसका संसार बढ जाता है और धर्मकी भी क्षति होती हैअर्थात्, समाजके साथ-साथ धर्मको भी भारी हानि उठानी पडती उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नही हो पाता ।' "J आचार्य महोदयने अपने वाक्यो द्वारा जैन जातियो और पंचायतोको जो गहरा परामर्श दिया है और जो दूरकी बात सुझाई है वह सभीके ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब-जब इस प्रकारके सदुपदेशो और सत्परामर्शोपर ध्यान दिया
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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