SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश ८१ अपने इस जन्ममे २२ वर्ष तक पतिका दु सह वियोग सहना पडा और अनेक सकट तथा आपदाओका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्यकृत 'पद्मपुराण' के देखनेसे मालूम हो सकता है । 'रयणसार' ग्रन्थके निम्न वाक्यमे यह स्पष्ट बतलाया गया है कि-'दूसरोके पूजन और दान-कार्यमे अन्तराय ( विघ्न ) करनेसे जन्म-जन्मान्तरमे क्षय, कुष्ठ, शूल, रक्तविकार, भगदर, जलोदर, नेत्रपीडा, शिरोठेदना आदिक रोग तथा शीतउष्ण ( सरदी-गर्मी ) के आताप और ( कुयोनियोमे ) परिभ्रमण आदि अनेक दु खोकी प्राप्ति होती है खयकुट्टसूलमूलो लोयभगदरजलोदरक्खिसिरो सीदुण्हवझराई पूजादाणतरायकम्मफल ॥३३॥ इसलिए जो कोई जाति-विरादरी अथवा पचायत किसी जैनीको जैनमन्दिरमे न जाने अथवा जिनपूजादि धर्म-कार्योसे वचित रखनेका दण्ड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण और उल्लघन ही नही करती, बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वय अपराधिनी वनती है। ऐसी जाति-विरादरियोके पचोकी निरकुशताके विरुद्ध आवाज उठानेकी जरूरत है और उसका वातावरण ऐसे ही लेखोके द्वारा पैदा किया जा सकता है। आजकल जैन-पचायतोंने 'जाति-बहिष्कार' नामके तीक्ष्ण हथियारको, जो एक खिलौनेकी तरह अपने हाथमे ले रक्खा है और बिना उसका प्रयोग जाने तथा अपने वलादिक और देशकालकी स्थितिको समझे, जहाँतहाँ, यद्वातद्वा रूपमे उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिये बडा ही भयकर तथा हानिकारक है। इस विषयमे श्रीसोमदेवसूरि अपने 'यशस्तिलक' ग्रन्थ' मे लिखते हैं -- १ यह अथ शक स० ८८१ ( वि० स० १०१६ ) में वनकर समाप्त हुआ है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy