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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश ७९ कुमार अति प्रसन्न हुए और उसके साथ अपने स्थान वापिस चले आये एव अन्य विद्याधर भी अपने-अपने स्थान चले गये ॥२३-२४॥" इस उल्लेखपरसे इतना ही स्पष्ट मालूम नही होता कि मातग जातियोके चाण्डाल लोग भी जैनमदिरमे जाते और पूजन करते थे, बल्कि यह भी मालूम होता है कि स्मशानभूमिकी हड्डियोके आभूषण पहने हुए, वहाँकी राख बदनसे मले हुए, तथा मृगछाला ओढे, चमडेके वस्त्र पहने और चमडेकी मालाएँ हाथमे लिये हुए भी जैनमदिरमे जा सकते थे', और न केवल जा ही सकते थे, बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजा करनेके बाद उनके वहाँ बैठनेके लिए स्थान भी नियत थे, जिससे उनका जैनमदिरमे जानेका और भी ज्यादा नियत अधिकार पाया जाता है । जान पड़ता है उस समय सिद्धकूट-जिनालयमे, प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बडा विशाल मडप होगा और उसमे स्तम्भोके विभागसे सभी आर्य-अनार्य जातियोके लोगोके बैठनेके लिए जुदा-जुदा स्थान नियत कर रखा गया होगा। आजकल जैनियोमे उक्त सिद्धकूट-जिनालयके ढगका १ यहाँ इस उल्लेखपरसे किसीको यह समझनेकी भूल न करनी चाहिये कि लेखक आजकल ऐसे अपवित्र वेष, जैन-मदिरोंमें जानेकी प्रवृत्ति चलाना चाहता है। २ श्री जिनसेनाचार्य ने, ९ वीं शताब्दीके वातावरणके अनुसार भी, ऐसे लोगोंका जैनमदिर में जाना आदि आपत्तिके योग्य नही ठहराया और न उससे मदिरके अपवित्र होजानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका अभिनदन किया है अथवा उसे बुरा नहीं समझा।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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