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________________ ८१० युगवीर-निवन्धावली आपत्तिसे तो बच जायँगी-वहाँ सुरक्षित तो रहेंगी, वर्षाका पानी तो हमारे ऊपर नही टपका करेगा, चमगादड तो हमारे ऊपर मल-मूत्र नही करेंगे, पशु तो हमसे आकर नही खसा करेंगे और कभी कोई जगली आदमी तो हमारेमेसे किसीके ऊपर खुरपे दाँती नही पनाएगा। उधर वडे मदिरके उस अनुपम तोरण द्वारपर जव दृष्टि पडती थी जो अपने साथी मकानोसे अलग होकर अकेला खडा हुआ है तो मानो ऐसा मालूम होता था कि वह अव हसरत भरी निगाहोसे देख रहा है और पुकार-पुकारकर कह रहा है कि, मेरे साथी चले गये । मेरे पोपक चले गये ।। मेरा कोई प्रेमी नही रहा ।।। मैं कब तक और अकेला खडा रहूँगा? किसके आधारपर खडा रहूँगा ? खडा रहकर करूँगा भी क्या ? मैं भी अब धराशायी होना चाहता हूँ ।।। इस तरह इन करुण दृश्यो तथा अपमानित पूजा-स्थानोको देखकर और अतीत गौरवका स्मरण करके हृदयमे बार बार दु.खकी लहरें उठती थी-रोना आता था और उस दु खसे भरे हुए हृदयको लेकरही मैं पर्वतसे नीचे उतरा था। समझमे नही आता, जिनकी प्राचीन तथा उत्तम देवमूर्तियोको यो अवज्ञा होरही हो वे नई-नई मूर्तियोका निर्माण क्या समझकर कर रहे हैं और उसके द्वारा कौनसा पुण्य उपार्जन करते हैं ।। क्या बिना जरूरत भी इन नई नई मूर्तियोका निर्माण प्राचीन शास्त्र विहित मूर्तियोकी बलि देकर उनकी ओरसे उपेक्षा धारण करके-नही हो रहा है ? यदि ऐसा नही तो पहले इन दुर्दशाग्रस्त मदिर-मूर्तियोका उद्धार क्यो नही किया जाता ? जीर्णोद्धारका पुण्य तो नूतन निर्माणसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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