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________________ देवगढ़के मन्दिर-मूर्तियोंकी दुर्दशा ८०९ पर खडे हुए अपनी निरकुशता अथवा अपना एकाधिपत्य प्रकट कर रहे है, घासकी मोटी जडें इधर-उधर फैलकर अपनी धृष्टताका परिचय दे रही हैं, एक मदिरसे दूसरे मदिरको जानेके लिये रास्ता साफ नही, मदिरोके चारो तरफ जगल ही जगल होगया है । वेहद घास तथा झाडझखाड खडे हैं, मदिरोकी प्राय सारी छतें टपकती हैं, वर्षाका बहुतसा जल मूर्तियोके ऊपर गिरता है, बहुतसी मूर्तियोपर काई जम गई है, उनके कोई कोई अग फट गये हैं अथवा विरूप हो गये हैं और मदिरमे हजारो चमगादड फिरते हैं जिनके मल-मूत्रकी दुगंधके मारे वहाँ खडा नही हुआ जाता, तो यह सब दृश्य देखते-देखते हृदय भर आता था-धैर्य त्याग देता था-आखोसे अश्रुधारा बहने लगती थी, उसे वार-बार रूमालसे पोछना पडता था और रहरहकर यह ख्याल उत्पन्न होता था कि क्या जैनसमाज जीवित है ? क्या जैनी जिन्दा हैं ? क्या ये मंदिर-मतियां उसी जैन जातिकी हैं जो भारतवर्ष में एक धनाढय जाति समझी जाती है ? अथवा जिसके हाथमे देशका एक चौथाई व्यापार बतलाया जाता है ? और क्या जैनियोमे अपने पूर्वजोका गौरव अपने धर्मका प्रेम अथवा अपना कुछ स्वाभिमान अवशिष्ट हैं ? उत्तर 'हाँ' में कुछ भी नहीं बनता था, और कभी-कभी तो ऐसा मालूम होने लगता था मानो मूर्तियाँ कह रही हैं कि, यदि तुम्हारे अदर दया है और तुमसे और कुछ नही हो सकता तो हमे किसी अजायबघरमे ही पहुँचा दो, वहां हम बहुतोको नित्य दर्शन दिया करेंगी-उनके दर्शनकी चीज बनेंगी-बहुतसे गुणग्राहकोकी प्रेमाजलि तथा भक्तिपुष्पाजलि ग्रहण किया करेंगी। और यदि यह भी कुछ नहीं हो सकेगा तो कमसे कम इस
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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