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________________ अतिपरिचयादवज्ञा ७६३ एक दिन युवा साहबको अपना यह एकान्त किसी अनेकान्ती महाशयके सम्मुख भी पेश करना पड़ा। वहाँ क्या देर थी। उक्त महाशयने झटसे इसके निराकरणमे यह वाक्य कहा - अतिपरिचयादवज्ञा इति यद्वाक्यं मृपैव तद् भाति । अतिपरिचितेऽप्यनादौ संसारेऽस्मिन् न जायतेऽवज्ञा ॥ अर्थात् जो कोई ऐसा एकान्त ग्रहण करता है और कहता है कि अति परिचय होनेसे अवज्ञा होती है, यह उसका एकान्त मिथ्या जान पडता है, क्योकि अनादि कालसे जिसका परिचय है ऐसे ससारसे किसी भी ससारीकी अवज्ञा नही है, ससारी इस विषय-भोग तथा रागादि भावोसे मुख नही मोडता है और न उनकी कुछ अवज्ञा करता है, बल्कि ससारी जीव उल्टा उनके लिये उत्सुक और उनकी पुष्टिमे अनेक प्रकारसे दत्तचित्त बने रहते हैं। इसलिये 'अतिपरिचयादवज्ञा' ऐसा एकान्त सिद्धान्त मिथ्या है। अनेकान्तवादीके इन वाक्योको सुनकर नवशिक्षित महाशयके देवता कूच कर गये, कुछ भी उत्तर न बन पड़ा और उनको मालूम होगया कि हमारा हेतु ठीक नही, व्यभिचारी है । अन्तमे उनको लज्जित होकर प्रमाद और आलस्यकी शरण ग्रहण करनी पडी अर्थात् यह कहना पडा कि यह मेरा प्रमाद और आलस्य है जो मैं नित्य मन्दिरजीमे नही जाता हूँ। १. जैनगजट, १६-७-१९०७
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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