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________________ अतिपरिचयादवज्ञा : ३ : एक नवशिक्षित प्रमादी युवा पुरुषको भगवान के दर्शन और पूजनसे रुचि नही थी । यद्यपि वह किसी भी प्रवल हेतुसे मूर्तिपूजनका खंडन नही कर सकता था, परन्तु वह हर वक्त इस फिक्रमे रहता था कि कोई ऐसी युक्ति मिल जावे जिससे मदिरमे नित्य दर्शनादिके लिये जाना न पडा करे । ढूंढते ढूंढते उनको कही से यह श्लोक हाथ लग गया — अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति । लोकः प्रयागवासी कृपे स्नानं समाचरति ॥ बस, अब क्या था । इस श्लोकको पाते ही युवा साहब हवा के घोडे पर सवार होगये और जब कोई उनको दर्शनादिके लिये मदिरमे जानेकी प्रेरणा करता तथा पूछता कि आप क्यो नही जाते हैं तो वह तुरन्त वडे हर्षके साथ अपने न जाने के कारणमे उपर्युक्त श्लोकको पेश कर देते थे और उसकी इस प्रकार व्याख्या करके अपना पिण्ड छुडा लेते कि जो वस्तु अधिक परिचय मे आती है उसकी अवज्ञा हो जाती हैं और जिसके पास निरन्तर जाना रहता है उसका हृदयमेसे आदर भाव निकल जैसे कि प्रयाग निवासी , मनुष्योको गंगा और यमुनाका अति परिचय होने और उसमे निरन्तर स्नान के लिये जाने से अब उन लोगोके हृदयमेसे उस तीर्थका आदर भाव निकल गया है और वे अब नित्य कुर्येपर स्नान करके उक्त तीर्थकी अवज्ञा करते हैं । इसी प्रकार नित्य मंदिरमे जानेसे भगवानकी अवज्ञा और अनादर हो जावेगा, इसीसे मैं नही जाता हूँ । लोग इसको सुनकर चुप हो जाते और कुछ जवाब न देते । G
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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