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________________ ४६ अभिनन्दनीय पं० नाथूरामजी प्रेमी ७२१ कोई विद्वान् इसका साराश अग्रेजी पत्रोमे प्रकाशित कराए। बा० होरालालजीको मैं इस विषयमे लिखूगा । इडियन एंटिक्वेरी वाले इसे अवश्य ही प्रकाशित कर देंगे। "क्या आप मुझे इस योग्य समझते हैं कि आपकी विद्वन्मान्य होनेवाली यह रचना मुझे भेंट की जाय ? अयोग्योके लिये ऐसी चीजें सम्मानका नहो, कभी कभी लज्जाका कारण बन जाती है, इसका भी कभी आपने विचार किया है ? मैं आपको अपना बहुत प्यारा भाई समझता हूँ और ऐसा कि जिसके लिये मैं हमेशा मित्रोमे गर्व किया करता हूँ। जैनियोमे ऐसा है ही कौन जिसके लेख किसीको गर्वके साथ दिखाये जा सकें ?" इस तरह पत्रोपरसे प्रेमीजीकी प्रकृति, परिणति और हृदयस्थितिका कितना ही पता चलता है। नि सन्देह प्रेमीजी प्रेम और सौजन्यकी मूर्ति हैं। उनका 'प्रेमो' उपनाम बिलकुल सार्थक है । मैंने उनके पास रहकर उन्हे निकटसे भी देखा है और उनके व्यवहारको सरल तथा निष्कपट पाया है। उनका आतिथ्य-सत्कार सदा ही सराहनीय रहा है और हृदय परोपकार तथा सहयोगकी भावनासे पूर्ण जान पडा है। उन्होने साहित्यके निर्माण और प्रकाशन द्वारा देश और समाजकी ठोस सेवाएँ की हैं और वे अपनेही पुरुषार्थ तथा ईमानदारीके साथ किए गये परिश्रमके बलपर इतने बड़े बने है तया इस रुतबेको प्राप्त हुए हैं। अत अभिनन्दनके इस शुभ अवसरपर मैं उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पण करता हूँ। १. प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, ५-७-१९४६
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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