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________________ जैनजातिका सूर्य अस्त ७१५ आखिर उनकी यह विरक्ति तव भंग हुई जब लगातारके मेरे अनुरोध और आग्रहपर वे वीरसेवामन्दिरमे आ गये । यहाँ आते ही उनकी लेखनी फिरसे चल पडो, उनमे जवानीका-सा जोश आगया-जिसे वे 'बासी कढीमे फिरसे उबाल आना' कहा करते थे और उन्होने लेख-ही-लेख लिख डाले। इन लेखोसे अनेकान्तके दूसरे तथा तीसरे वर्षकी फाइलें भरी हई हैं और उनसे अनेकान्तके पाठकोको बहुत लाभ पहुंचा है। इस दोढाई वर्षके अर्सेमे उन्होने अनेकान्तको ही लेख नही दिये, बल्कि दूसरे जैन तथा अजैन पत्रोको भी कितने ही लेख दिये हैं। इसके अलावा, यहां सरसावामे रहते उन्होने वीरसेवामन्दिरकी कन्यापाठशालामे कन्याओको शिक्षा भी दी है, मन्दिरमे लोगोके आग्रहपर उन्हे दो-दो घटे रोजाना शास्त्र भो सुनाया है और आश्रमके विद्वानोसे चर्चा-वार्ताम जब जुट जाते थे तो उन्हे छका देते थे। आपकी वाणीमे रस था, माधुर्य था, ओज था और तेज था । ___ कुछ कौटुम्बिक परिस्थितियोके कारण आपको लगभग ढाई वर्षके बाद वीरसेवामन्दिरको छोडना पड़ा-आपके भाई बा० चेतनदासजी वकीलको फालिज ( लकवा) पड गया था, उनकी तोमारदारीके लिये आपको उनके पास ( देवबन्द ) जाना पड़ा और फिर चि० सुखवन्तरायकी परिस्थितियोके वश उसके पास देहली केंट, देहरादून तथा इलाहाबाद रहना पड़ा। तदनन्तर चि० कुलवन्तराय उन्हे डालमियानगर ले गया, जहां उनकी बीमारी का कुछ समाचार सुन पडा, और अन्तको कलकत्तेमे जाकर १६ सितम्बरकी सध्याके समय ७७ वर्ष की अवस्थामै उनकी इहजीवन-लीला समाप्त होगई ।। और इस तरह जनजातिका एक महान् सेवक 'सूर्य' सदाके लिये अस्त होगया !!! भले ही आज बाबूजी अपने भौतिक शरीरमे नही है, परन्तु
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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