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________________ ४५ श्रीदादीनी ७०५ ही कालमोमे मुझे श्रीदादीजीका वियोग लिखते समय बडा कष्ट हुआ था । मेरे लिये उस समय इतना ही सन्तोषका विषय था कि मैं दादीजीकी बीमारीकी खबर पाकर देहलीसे नानोता आठ दिन पहले सेवामे पहुँच गया था। और मैंने अपनी शक्तिभर उनकी सेवा करनेमे कोई बात उठा नही रक्खी । मेरे पहुँचने के कुछ दिन पहलेसे दादोजी बोलती नही थी और न आँखें ही खोलती थी। मेरे आनेका समाचार पाकर उन्होने आँख जरा खोली और पुकारनेपर शक्तिको बटोरकर कुछ हंगूरा भी दिया। अगले दिन ( १ ली जून १६४५ को ) तो उन्होने अच्छी तरह आँखें खोल दी और वे बोलने भी लगी । इससे उनके रोगमुक्त होनेकी कुछ आशा बँधी और साथही उनके उस श्रद्धावाक्यकी भी याद हो आई जिसे वे अक्सर कहा करती थी कि " जब तुम आजाते हो हमारे रोग - सोग सब चले जाते हैं" । कई बार रोगोसे मुक्तिके ऐसे प्रसंग उपस्थित भी हुए हैं जो उनकी श्रद्धाके कारण बने हैं और इसलिये उन्हें उनके उक्त श्रद्धावाक्यको याद दिलाते हुए कहा गया कि "आप अब आपको अपनी धारणानुसार जल्दी अच्छा हो जाना चाहिए।" कई दिन वे अच्छी रही थी, परन्तु अन्तको आयुकर्मने साथ नही दिया और तारीख ७ जून १६४५ ( ज्येष्ठ कृष्णा १२ ) गुरुवारको दिनके ११॥ बजे के करीब इस नश्वर एव जीर्णं देहका समाधिपूर्वक त्याग करके स्वर्ग सिधार गईं। और इस तरह जैन- समाजसे एक ऐसी धर्मपरायण - वीरागना उठ गई जो कष्टोको बडे धैर्य के साथ सहन करती हुई कर्तव्य पालन मे निपुण थी, जिसका हृदय उदार और अतिथि सत्कार सराहनीय था, जो अपने हित की अपेक्षा दूसरोके और खासकर आश्रित
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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