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________________ ७०२ युगवीर-निवन्धावली देहान्त हो गया तब मैने इन्हे पंडिता चन्दावाईजीके आश्रममे आरा भिजवा दिया और इनकी शिक्षाका समुचित प्रवन्ध कर दिया । नगरके लोगो और अनेक इष्ट जनोने दादीजीसे कहा कि तुम ऐसी दु ख सकटकी अवस्थामे इन्हे बाहर क्यो भेजती हो ? अपनी छातीसे लगाकर क्यो नही रखती ? परन्तु विद्यासे प्रेम रखनेवाली और अपने आश्रितजनोका भला चाहनेवाली दादीजीने उनकी एक नहीं सुनी और स्वय अकेलेपनके कष्ट झेलकर भी वर्षों तक इन्हें बाहर ही रखकर शिक्षा दिलाई। इन दोनोके प्रति चन्दाबाईजीकी श्रद्धा बहुत बढी-चढी है । गुणमालाका सती-साध्वी-जैसा जीवन आपको पसन्द आया और जयवन्तीकी बुद्धिमत्ता तथा सुशीलता मनको भा गई। इसीसे जब कभी पडिताजोकी इच्छा होती है वे इन्हे अपने पास बुला लेती हैं, यात्रादिकमे अपने साथ रखती हैं और स्वय भी कई बार इधर इनके पास आई है और सदैव इनके हितका खयाल रखती हैं। चि. जयवन्तीको आपने 'जैनमहिलादर्श' की उपसपादिका भी निथत कर रक्खा है। अपनी आशाकी एकमात्र केन्द्र चि० जयवन्तीका भले प्रकार पालन-पोषण एव सुशिक्षण सम्पन्न करके और प्रतिष्ठित घरानेके योग्य वर बा० त्रिलोकचन्द बी० ए० के साथ उसका सम्बन्ध जोडकर दादाजीने सोचा था कि वह जमीदारीका सारा भार त्रिलोकचन्द्र वकीलके सुपुर्द करके निश्चिन्त हो जावेगी और अपना शेष जीवन पूर्णतया धर्मध्यानके साथ व्यतीत करेंगी, परन्तु दुर्दैवको यह भी इष्ट नही हुआ-अभी सम्बन्धके छह वर्ष भी पूरे न होने पाये थे कि त्रिलोकचन्दका अचानक स्वर्गवास होगया । जयवन्ती भी वालविधवा बन गई। पुत्रके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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