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________________ समाजक C 2. समाजका वातावरण दूषित ६५१ दोपके कारण वे सर्वथा त्याज्य एव उपेक्षणीय नही होजाते, जवकि वे अपने व्यवहारमे अनेकान्तको अपनाये हुए हैं-उसे छोड नही रहे है। उन्होने कितने ही जैनो तथा सच्चे जैनधर्मसे विमुखोको जैनधर्म के सम्मुख किया है, कितने ही दिगम्बर जैनमन्दिरो तथा मूर्तियोका निर्माण कराया है और बहतोमें धर्मविपयको समझानेके लिए एक प्रकारकी जिज्ञासा तथा जागृति उत्पन्न की है। उनके इस उपकार को भुलाया नहीं जा सकता। सोमदेवसूरिने यशस्तिलकमे ठीक लिखा है कि एक दोपके कारण कोई तस्वज्ञ मनुष्य ( विद्वान् ) त्याज्य कैसे हो सकता है ? नही हो सकता और नहीं होना चाहिये - एक दोपकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः। श्रीकानजी स्वामीकी सस्था दि० जैन स्वाध्यायमन्दिर-ट्रस्ट सोनगढसे प्रकाशित होनेवाले समयसार-प्रवचनसारादि ग्रन्थोके अनुवादो-टीकाओमे कुछ त्रुटियोका होना सम्भव है, परन्तु उनके कारण उन समूचे ग्रन्थोके पढनेका निपेध किया जाना अथवा बहिष्कार किया जाना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सक्ता। इससे एक प्रकार जिनवाणीकी अवज्ञा तथा उन महान् ग्रन्थोकी भी अवगणना हो जाती है जो हमारे मान्य एव पूज्य हैं। साथ ही समाजका वातावरण भी क्षुभित हो उठता है । प्रत्येक विद्वान् अपनेको प्राप्त ज्ञान एव दृष्टिकोणके अनुसार ही किसी ग्रन्थका अनुवादादि कार्य करता है, क्षयोपशमादिके दोपसे उसमे कही कुछ विपर्यास अथवा अन्यथा कथन भी बन जाता है, इतने मात्रसे वह ग्रन्थ सर्वथा त्याज्य नही हो जाता। यदि ऐसा होता तो बहुतसे टीकादि ग्रथ ही नहीं, किन्तु मूलग्रन्थ भी त्याज्य ठहरते, जो एक-दूसरेके विरुद्ध कथनको लिये हुए हैं, परन्तु ऐसा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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