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________________ ६४२ युगवीर-निबन्धावली दिया जाता तो ज्यादा अच्छा होता। कविजीने जब अपनी कवितामे दर-दर, उफ और जल्लाद जैसे अरबीके शब्दोका प्रयोग किया है तव उनके लिये 'वापिस' शब्दका प्रयोग कोई अनुचित भी न होता अथवा 'लौटा लो हे भगवन् । अपना' ऐसा रूप ही प्रथम चरणके पूर्वार्धको दे दिया जाता। मालूम नही, कौनसे भगवानको सम्बोधन करके यह वाक्य कहा गया है | जैनियोके भगवान तो ऐसे नही जो किसीको झगडालू जीवन प्रदान करते हो और जिनसे उसको वापिस ले लेनेकी प्रार्थना की जाय । इस दृष्टिसे यह वाक्य जैनकी स्पिरिटसे भी कुछ गिरा हुआ जान पडता है । एक छोटी-सी कवितामे इतनी अधिक त्रुटियोको देखकरजिन सवको प्रेसकी आकस्मिक भूल नही कहा जा सकताकहना पडता है कि पत्रका प्रकाशन सचालकोकी प्रतिष्ठाके अनुरूप नही हो रहा है। आशा है, सचालक-समिति इस ओर सविशेष रूपसे ध्यान देगी और ऐसा सुयोग्य प्रवन्ध करेगी जिससे भविष्यमे इस प्रकारकी त्रुटियाँ देखनेको न मिलें। साथ ही सम्पादकजी विशेष सावधानीको अपनाते हुए यह प्रकट करनेकी कृपा करेंगे कि उक्त कविता क्या उनके पास इसी रूपमे आई थी और उन्हे उसके सशोधनका अवसर नही मिल सका या उन्होने उसे सदोप एव त्रुटिपूर्ण ही नही समझा ? अथवा कविताका अमुक रूप था और यह सशोधित रूप उनके द्वारा ही प्रस्तुत किया गया है ? जिससे उनके पाठकोका तद्विषयक भ्रम दूर हो सके। नोट-प्रसन्नताका विषय है कि इस लेखको पढ़कर सम्पादकजीने अपनेको बहुत कुछ त्रुटिपूर्ण समझा है और पत्र-द्वारा सम्पादन-सम्बन्धी अपनी भूलको स्वीकार किया है। १. जैनसन्देश, ता० १७ मार्च १९३८ ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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