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________________ ६४० युगवीर - निबन्धावली है और उसका उच्चारण दूसरे किसी भी उच्चारणके साथ नही मिलता। साथ ही तीसरे चौथे चरणोके उत्तरार्धीमे एक-एक मात्राको कमी होने से छन्दोभग स्पष्ट नजर आता है । पड़ा मुझे भी सब कुछ खोना पैसे के चक्कर में । मान ज्ञान तज इवान समान वन, डोला उफ़ ! घर-घर में । हाय दीनता ! तूने मुझको वता कहाँका छोड़ा ? माता छोड़ी, भ्राता छोड़ा, देश तथा घर छोड़ा ? इस पद्यके दूसरे चरण मे 'श्वान' के बाद 'समान' शब्दका कोई मेल नही - उससे एक मात्रा बढकर छद ही बिगड जाता है । इसके स्थानपर 'सदृश' जैसा कोई शब्द रक्खा जाता तो अच्छा होता, साथ ही 'मे' के स्थानपर 'मैं' होना चाहिये था । जिससे कौन डोला यह स्पष्ट हो जाता | मुहावरेकी दृष्टिसे 'घर-घर' के साथ 'मे' निरर्थक है । चौथा चरण वडा ही विचित्र जान पडता है। उसके 'छोडा' 'छोडी' शब्दोका सम्बन्ध पूर्व चरणके साथ ठीक नही बैठता - न तो यही कहा जा सकता है कि कविने स्वेच्छासे ही अपनी माता आदिको छोड दिया है । तब यही कहना होगा कि दीनताने कविसे उन्हें छुडवाया अथवा निर्धनताके चक्कर मे पडकर कविको धनोपार्जनके लिये बाहर जाने की गर्जसे मजबूरन उन्हें छोड़ना पड़ा। ऐसी हालत मे चतुर्थ चरणका रूप "माता छूटी, भ्राता छूटा, देश तथा घर छुटा " ऐसा होना चाहिये था और उसके आगे प्रश्नात (?) न लगाकर खेदका चिह्न ( 1 ) लगाना चाहिये था । धोबीके कुत्ते सी मेरी हाय ! गति कर डाली । घरका रखा न घाटका छोड़ा, हाय ! अन्तमें खाली । मृत्यु अच्छी इस जीवनसे, यह भी क्या जीवन है ? ठुकराया जाय जनका तन, कैसा निर्लजपन है ?
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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