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________________ एक ही अमोघ उपाय ६२९ वाक्यसे मिलती है, जिसके कारण निराश होनेकी जरा भी जरूरत नही है - योग्य प्रयत्न करना चाहिये कामं द्विपन्नप्युपपतिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टं । त्वयि ध्रुवं खंडितमान' गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ||३२|| —युक्त्यनुशासन इसके सिवाय, हमारे इन पडितोका सुधार भी हो जायगा और समाजका भविष्य भी उज्वल बन जायगा, और तभी हम ठीक अर्थमे अज्ञानान्धकारको दूर करके जैनशासनकी सच्ची प्रभावना करनेमे समर्थ हो सकेंगे । यदि समाज चाहता है कि उसके इन पडितो का यह मानसिक दौर्बल्य दूर होकर उनमे स्फूर्ति, उत्साह, साहस और पुरुषार्थका सचार हो, वे सशक्त और कार्यक्षम बनें-- अपने उत्तरदायित्वको न भूलें, उनसे देश, धर्म तथा समाजकी सेवाका यथेष्ट कार्य लिया जा सके, उनसे सम्बन्ध रखनेवाली समाजकी पुकारें भविष्यमे व्यर्थ न जाने पावें और उनके अस्तित्वसे समाजका गौरव बढे - उसे प्रगति प्राप्त हो, तो उसे शीघ्र ही उक्त उपायको कार्यमें परिणत कर देना चाहिये और उसपर ठीक १. इस वाक्य में यह आशय सूचित किया गया है कि- 'भगवान् महावीरके अनेकान्तरूप शासन तीर्थमें यह खूबी खुद मौजूद है कि उससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुआ, उपपतिचक्षुसे ( मात्सर्यके व्याग-पूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे ) उसका अवलोकन करता है तो अवश्य ही उसका मान-शृङ्ग खडित हो जाता है, सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सव ओरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है, अथवा यो कहिये कि भगवान् महावीरके शासन-तीर्थका सच्चा उपासक और अनुयायी हो जाता है ।'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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