SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 628
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३३ र पुकारें सफन हो तो सवने पहले असफलताके रहस्यको मालूम करते हुए यह जानने की जरूरत है कि जिन्हें लक्ष्य करके ये नव को जाती है कुछ हरे तो नहीं हैं, उनके कान में वादें ती हुई नहीं है, वे तो नहीं है। उतना ज्ञान उतना वन होना चाहिये जो उसे सफल बना वामार अथवा अन्य प्रकारने अगत होनेके साय नाथ पुकारके पा जो उनके रानी दूर कर सके. कानांमें लगी डाटी को निकाल के निकर सके, अशक्तता को दूर भगा सके और इस तरह उन्हें कार्यमे उतार कर उनसे ययेष्ट कार्य ले सके । जब तक यह सब नहीं होता तब तक इन पुकारीका कुछ भी नतीजा नहीं है-वे नव अरण्यरोदनके समान व्यर्थ हैं । इसमें सन्देह नहीं कि प० दरवारीलालजीकी निहगर्जना के सामने इन उपाधिधारी पडितोने अपनी जिस मनोवृत्तिका परिचय दिया है और जो रुख अलियार किया है वह बहुत ही लज्जाजनक है - उसने समाजमे इनकी पोजीशन गिर गई है, इतना ही नही, बल्कि समाजको इनके कारण लज्जित भी होना पडा है और धर्मको भी कितनी ही हानि उठानी पडी है । इसमे प० दरवारीलालजी का कोई दोष नही है । उन्होने प० दीपचदजी वर्णीको जो उत्तर दिया है और जो पीछे एक फुटनोटमे उद्धृत उसमे लाग-लपेटकी वह बिल्कुल स्पष्ट हे किया जा चुका है कोई बात नही है । हर शख्स अपने उन विचारोको, जिन्हे वह सत्य समझता है, उस वक्त तक प्रकट करनेमे स्वतन्त्र है, जव तक कि उनका योग्य प्रतिवाद न कर दिया जाय अथवा उचित समाधानके द्वारा उन्हे वदल न दिया जाय । इस प्रकारका अपना उत्तर वे और भी अनेक बार जैनजगत्म प्रकाशित कर चुके हैं । और इससे उनके समाधानकी सारी जिम्मेदारी उन दिग्गज कहे --
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy