SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 627
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक ही अमोघ उपाय ६२१ न कर सके तो वैसा प्रकट करे, तब दूसरी कोई विद्वन्मण्डली स्थापित की जावे। यह पुकार यद्यपि बहुत ही दबे शब्दोमे-मानो निराशाक्रान्त हृदयसे-की गई है और उन पिछली पुकारोके मुकाबलेमे विल्कुल ही नगण्य है, फिर भी इस बातको सूचित करनेके लिये पर्याप्त है कि अभीतक प० दरवारीलालजीके लेखोके विरोध पुकार बन्द नहीं हुई है-वह बरावर जारी है।' परन्तु जब पिछली इतनी भारी-भारी पुकारें ही इन पदवीधर पडितोकी अकर्मण्यतासे टकाराकर निरर्थक सिद्ध होचुकी है, तब ऐसी साधारण पुकारका तो उनपर असर ही क्या हो सकता है ? रही शास्त्रार्थसघकी बात, सो वह पहलेसे ही समाज के पडितोका सहयोग प्राप्त न होनेसे इस विपयमें हथियार डाले हुए है । उसके पत्र 'जैनदर्शन' की नीतिका व्यावहारिक रूप भी आजकल प्राय वदला हुआ है। सहयोगके अभावमे वह अकेला उक्त पुस्तकका अच्छा प्रौढ उत्तर तैयार कर सकेगा और पाँच गण्यमान्य जैन विद्वानोसे उसकी जाँच एव सशोधनादिक कार्य कराकर उसपर उनके हस्ताक्षर भी प्राप्त करानेमें समर्थ हो सकेगा, ऐसी आशा बहुत ही कम–प्राय नहीके बराबर जान पडती है। और इसलिये यह पुकार पुकारमात्र ही रह जाती है-उसमे कुछ भी होने-जानेवाला मालूम नही होता । यदि ये सब पुकारें महज पुकारनेके लिये ही हैं तब तो कुछ कहने सुननेकी जरूरत नहीं है । और यदि यह चाहा जाता है कि १ श्वेताम्बर समाजकी ओरसे इस विषयमें क्या कुछ पुकार मची है और मच रही है, उसका हाल मुझे मालूम नहीं है। किसी श्वेताम्बर विद्वान् को उसे सत्यसन्देशमें प्रकट करना चाहिए ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy