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________________ ६०३ नया सन्देश और अपने खोट-मिले हुए सुवर्णको ही शुद्ध सुवर्णकी दृष्टिसे देखते हैं और उसीसे प्रेम रखते हैं, उनके सुवर्णमे कभी किसी परीक्षक-द्वारा खोट निकाले जानेपर उनकी प्राय ऐसी ही दशा हुआ करती है। ठीक यही दशा इस समय हमारे सेठ साहबकी जान पड़ती है। उन्हे अपने सुवर्ण (श्रद्धास्पद-साहित्य ) के खोट-मिश्रित करार दिये जानेका भय है और उसके सशोधन करानेमे सुवर्णका वजन कम हो जानेका डर है। इसीलिए आप ऐसे-ऐसे नवीन सदेश सुनाकर-समालोचकोको अजेनी करार देकर -परीक्षाका दर्वाजा बन्द कराना चाहते हैं और शायद फिरसे अन्धश्रद्धाका साम्राज्य स्थापित करनेकी चिन्तामे हैं । आपने अपने सन्देशमें एक बात यह भी कही है कि हमें किसी सभाके सभापति, किसी पत्रके सम्पादक और किसी स्थानके पण्डितकी बातोपर ध्यान नहीं देना चाहिए और न उन्हे प्रमाण मानना चाहिए, बल्कि 'गुरूणा अनुगमनं' के सिद्धान्त पर चलना चाहिए । अर्थात् हमारे गुरुओने, पूर्वाचार्योने जो उपदेश दिया है उसीके अनुसार हमें चलना चाहिए। यह सामान्य सिद्धान्त कहने-सुननेमे जितना सुगम और रुचिकर मालूम होता है, अनुष्ठानमे उतना सुगम और रुचिकर नही है। बहुतसे गुरुओके वचनोमे परस्पर भेद पाया जाता है हर एक विषयमे सब आचार्योंकी एक राय नही है। जब पूर्वाचार्योंके परस्पर विभिन्न शासन और मत सामने आते हैं तब अच्छे अच्छे आज्ञा-प्रधानियोकी बुद्धि चकरा जाती है और वे 'किं कर्तव्यविमूढ' हो जाते हैं। उस समय परीक्षा-प्रधानता और अपने घरकी अकलसे काम लेनेसे ही काम चल सकता है। अथवा यो कहिये कि ऐसे परीक्षाप्रधानी और खोजी विद्वानोकी बातोपर ध्यान देनेसे ही कुछ नतीजा निकल सकता है, केवल 'गुरूणा अनुगमनं' के सिद्धान्तपर बैठे रहनेसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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