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________________ ३६ जयधवलाका प्रकाशन ५६१ आचार्योंका होना लिखा है, महावीरके निर्वाणसे ६११ वर्ष पीछे द्वादशागका लुप्त होना प्रकट किया है और इस वीरनिर्वाण सवत् ६११ के वादके किसी समयमे ही, जो विक्रम संवत् ८६५ से पीछेका न होना चहिये, गुणधराचार्यके अस्तित्वको सूचित किया है । समय-सम्बन्धी यह सब कथन और तो क्या, खुद जयधवला टीकाके ही विरुद्ध है । क्योकि इस टीकामे, ग्रन्थावतारके कालक्रमको सूचित करते हुए महावीरके निर्वाणसे १६२ (६२ + १००) वर्षके अन्दर क्रमश तीन केवलियो और पॉच श्रुतकेवलियो का होना लिखा है, भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात् १८३. वर्षके समयमे ग्यारह अग दशपूर्वके पाठियोका होना बतलाया है ( "सि कालो तेसीदि सदवस्साणि" ), महावीरके निर्वाणसे ६८३ ( "छस्सदवासाणि तेसीदिवाससमयाहियाणि" ) वर्षके वाद आचारागके (अथवा द्वादशागके) विच्छेद होनेको सूचित किया है और इस ६८३ वर्षके बादकी आचार्य - परम्परामें गुणधराचार्यके अस्तित्वका प्रतिपादन किया है। धवलसिद्धान्त और मुख्य मुख्य ग्रन्थोमे भी यही सव ६८३ वर्षका समय आचारागके विच्छेद होने तकका दिया है । प्रोफेसर साहबका इसे बिना किसी ऊहापोह के ६११ वर्षका समय बतलाना भ्रमपूर्ण है । जान पडता है वे शीघ्रता केवलियोंके ६२ वर्षके समयकी गणना करना ही भूल गये ओर "तेसीदिसद" का अर्थ अङ्कादिकी किसी गलतीसे १८३ की जगह १७३ वर्ष समझ गये हैं । फिर भी निर्वाणसे अङ्गविच्छेद तकके सर्वकालपरिमाणको सूचित करनेके लिये शब्दो तथा अकोमे स्पष्टरूपसे लिखी हुई ६८३ वर्षकी सख्याकी उन्होने क्यो उपेक्षा की, यह कुछ समझमे नही आता ।। (ख) पृष्ठ ११ पर 'गुणहर भडारएण' के अनन्तर और 'गाहासुत्ताणमादीए' से पहले निम्न पाठ छूट गया है, जो आरा' ,
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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