SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२६ युगवीर-निवन्धावली है। अत. मेरे लिखनेका जो तात्पर्य निकाला गया है वह लेख तथा उसकी दृष्टिको न समझनेका ही परिणाम है। लेखमें "शुद्धत्व यदि साध्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्तिका मार्ग है-साधन है। साधनके बिना साध्यकी प्राप्ति नहीं होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी ?" इत्यादि वाक्योके द्वारा लेखकी दृष्टिको भली प्रकार समझा जा सकता है। जिसका लक्ष्य शुद्धत्व है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवको लक्ष्य करके ही यह कहा गया है कि उसे शुभमें अटकनेसे डरनेकी भी ऐसी कोई बात नही है, ऐसा जीव ही यदि शुभमे अटका रहेगा तो शुद्धत्वके निकट रहेगा। शंका ७---गदि पुण्य और धर्म एक ही वस्तु हैं तो शास्त्रकारोने पुण्यको भिन्न सजा क्यो दी ? समाधान-यह शका कुछ विचित्र-सी जान पड़ती है। मैंने ऐसा कही लिखा नही कि 'पुण्य और धर्म एक ही वस्तु है ।' जो कुछ लिखा है उसका रूप यह है कि "धर्म दो प्रकारका होता हैएक वह जो शुभभावोके द्वारा पुण्यका प्रसाधक है और दूसरा वह जो शुद्धभावके द्वारा किसी भी प्रकारके (बन्धकारक) कर्मास्रवका कारण नहीं होता। इससे यह साफ फलित होता है कि धर्मका विषय बडा है-वह व्यापक है, पुण्यका विषय उसके अन्तर्गत आ जाता है, इसलिये वह व्याप्य है। इस दृष्टिसे दोनोको एक ही नही कहा जा सकता, धर्मका एक प्रकार होनेसे पुण्पको भी धर्म कहा जाता है। इसके सिवाय, एक ही वस्तुकी दृष्टिविशेषसे यदि अनेक सज्ञाएँ हो तो उसमे बाधाकी कौन सी बात है ? एकएक वस्तुकी अनेक-अनेक सज्ञाओसे तो ग्रन्थ भरे पड़े हैं, फिर १ देखो, अनेकान्त वर्ष १३, किरण १, पृ० ५
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy