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________________ हीराचन्दनी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५२५५ कारण हो, ऐसी कोई बात भी नहीं है। तीर्थंकर-प्रकृति और सर्वार्थसिद्धिमे गमन करानेवाले पुण्यकर्मका बध जल्दी ही मुक्तिको निकट लानेवाला होता है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसार (गा० ४५) में 'पुण्णफला अरहता' वाक्यके द्वारा ऐसे ही सातिशय पुण्यका उल्लेख किया है जिसका फल अर्हत्पदकी प्राप्ति है और अर्हत्पदप्राप्ति तद्भव मुक्तिकी गारटी है। शका ६~-यदि शुभमें अटके रहनेमे कोई हानि नही है तो फिर शुद्धत्वके लिये पुरुषार्थ करनेकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? क्योकि आपके लेखानुसार जब इनसे हानि नही तो जीव इन्हे छोडनेका उद्यम ही क्यो करे। क्या आपके लिखनेका यह तात्पर्य नहीं हुआ कि इसमें अटके रहनेसे कभी न कभी तो ससार परिभ्रमण रुक जावेगा? शुभक्रिया करते करते मुक्ति मिल जावेगी, ऐसा आपका अभिप्राय हो तो शास्त्रीय प्रमाण द्वाग इसे और स्पष्ट कर देनेकी कृपा करें। ____समाधान-~-शुद्धत्वकी प्राप्तिका लक्ष्य रखते हुए जब किसीको परिस्थितियोके वश शुभमे अटकना पडता है तो उसके लिए शुद्धत्वके पुरुषार्थकी आवश्यकता कैसे नही रहती ? आवश्यकता तो उसको नहीं रहती जो शुद्धत्वका कोई लक्ष्य ही नही रखता और एकमात्र शुभभावोको ही सर्वथा उपादेय समझ बैठा है, ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होता है । सम्यग्दृष्टि जीवकी स्थिति दूसरी है, उसका लक्ष्य शुद्ध होते हुए परिस्थितियोके वश कुछ समय शुभमे अटके रहनेसे कोई विशेष हानि नहीं होती। यदि वह शुभका आश्रय न ले तो उसे अशुभराग-द्वेषादिके वश पडना पडे और अधिक हानिका शिकार बनना पडे । शुभका आश्रय लिये बिना कोई शुद्धत्वको प्राप्त भी नहीं होता, यह बात पहले भी प्रकट की जा चुकी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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