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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाऍ ४८९ मोहके उदय वश होते हैं और जो ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होनेसे न तो जीवादिकके परिज्ञानमे बाधक हैं और न समता- वीतरागताकी साधना ही वाधक होते हैं । और इस तरह कानजी स्वामी - पर घटित होनेवाले आरोपका परिमार्जन किया था । इन सब बातोसे तथा इस बात से भी कि कानजी स्वामी के चित्रोको अनेकान्त में गौरव के साथ प्रकाशित किया गया है यह बिल्कुल स्पष्ट है कि कानजी स्वामीके व्यक्तित्वके प्रति अपनी कोई बुरी भावना नही, उनकी वाक्परिणति एव वचनपद्धति सदोष जान पडती है, उसीको सुधारने तथा गलतफहमीको न फैलने देनेके लिये ही सद्भावनापूर्वक उक्त लेख लिखनेका प्रयत्न किया गया था । उसी सद्भावनाको लेकर लेखके पिछले (तृतीय) भाग में इस बात को स्पष्ट करके बतलाते हुए कि 'श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्र - जैसे महान् आचार्योंने पूजा - दान - व्रतादिरूप सदाचार ( सम्यक् चारित्र ) को -- तद्विषयक शुभभावोकोधर्म बतलाया है - जैनधर्म अथवा जिनशासन के अगरूपमे प्रतिपादन किया है । अतः उनका विरोध ( उन्हे जिनशासनसे बाह्यकी वस्तु एव अधर्म प्रतिपादन करना ) जिनशासनका विरोध है, उन महान् आचार्योका भी विरोध है और साथ ही अपनी उन धर्मप्रवृत्तियोके भी वह विरुद्ध पडता है जिनमे शुभभावोका प्राचुर्य पाया जाता है', कानजी स्वामीके सामने एक समस्या हल करनेके लिये रक्खी थी और उसके शीघ्र हल होने की जरूरत व्यक्त की गई थी, जिससे उनकी कथनी और करणीमें जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके। साथ ही, उन पर यह प्रकट किया - था कि उन्होने जो ये शब्द कहे हैं कि "जो जीव पूजादिके शुभ
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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