SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८८ युगवीर-निवन्धावली उन लोगोको जो कि अपरमभावमे स्थित है-वीतराग चारित्रकी सीमातक न पहुँचकर साधक-अवस्थामे स्थित हुए मुनिवर्म या श्रावकधर्मका पालन कर रहे हैं-व्यवहारनय के द्वारा उस व्यवहारधर्मका उपदेश दिया करें जिसे तरणोपायके रूपमे 'तीर्थ' कहा जाता है, तो उनके द्वारा जिनशासनको अच्छी सेवा हो सकती है और जिनधर्मका प्रचार भी काफी हो सकता है। अन्यथा, एकान्तकी ओर ढल जानेसे तो जिनशासनका विरोध और तीर्थका लोप ही घटित होगा।" इसके सिवा समयसारकी दो गाथाओ नं० २०१, २०२ को लेकर जब यह समस्या खड़ी हुई थी कि इन गाथाओके अनुसार जिसके परमाणुमात्रमे भी रागादिक विद्यमान है वह आत्मा अनात्मा ( जीव-अजीव ) को नहीं जानता और जो आत्मा अनात्माको नही जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता। कानजी स्वामी चूँकि राग-रहित वीतराग नहीं और उनके उपदेशादि कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं, तव' क्या रागादिकके सद्भावके कारण यह कहना होगा कि वे आत्मा-अनात्माको नही जानते और इसलिए सम्यग्दृष्टि नहीं है ? इस समस्याको हल करते हुए मैने लिखा था कि 'नहीं कहना चाहिए' और फिर स्वामी समन्तभद्रके एक वाक्यकी सहायतासे उन रागादिकको स्पष्ट करके बतलाया था जो कुन्दकुन्दाचार्यकी उक्त गाथाओमे विवक्षित हैं-अर्थात् यह प्रकट किया था कि मिथ्यादृष्टिजीवोके मिथ्यात्वके उदयमे जो अहंकार-ममकारके परिणाम होते हैं उन परिणामोसे उत्पन्न रागादिक यहाँ विविक्षित है-जो कि मिथ्यात्वके कारण 'अज्ञानमय' होते एव समतामे बाधक पडते हैं । वे रागादिक यहाँ विवक्षित नहीं है जोकि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभावमे चारित्र
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy