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________________ ४६१ कानजी स्वामी और जिनशासन सार भी नही है, क्योकि एकमात्र शुद्धात्माका अनुभव करके रह जाना वा उसीमे अटके रहना उसका कर्तव्य नहीं है, बल्कि उसके आगे भी उसका कर्तव्य है और वह है कर्मोपाधिजनित अपनी अशुद्धताको दूर करके शुद्धात्मा वननेका प्रयत्न, जिसे एकान्तदृष्टिके कारण छोड दिया गया जान पडता है। और इसलिये वह जिनशासनका सार नही है। जिनशासन वस्तुत निश्चय और व्यवहार अथवा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनो मूल नयोके कथनोपकथनोको आत्मसात् किये हुए है और इसलिये उसका सार वही हो सकता है जो किसी एक ही नयके वक्तव्यका एकान्त पक्षपाती न होकर दोनोके समन्वय एव अविरोधको लिए हुए हो। इस दृष्टिसे अति सक्षेपमे यदि जिनशासनका सार कहना हो तो यह कह सकते हैं कि-नयविरोधसे रहित जीवादि तत्त्वो तया द्रव्योके विवेक सहित जो आत्माके समीचीन विकासमार्गका प्रतिपादन है वह जिनशासन है।' ऐसी हालतमे केवल अपने शुद्धात्माका अनुभव करना यह जिनशासनका सार नही कहला सकता । अशुद्धात्माओके अनुभव विना शुद्धात्माका अनुभव वन भी नही सकता और न अशुद्धात्माके कथन विना शुद्धात्मा कहनेका व्यवहार ही बन सकता है। अत जिनशासनसे अशुद्वात्माके कथनको अलग नही किया जा सकता और जब उसे अलग नही किया जा सकता तव सारे जिनशासनके देखने और अनुभव करनेमे एकमात्र शुद्धात्माको देखना या अनुभव करना नही आता, जिसे जिनशासनके साररूपमे प्रस्तुत किया गया है । वीतरागता और जैनधर्म श्रीकानजीस्वामी अपने प्रवचनमे कहते हैं कि "शुद्ध आत्माके अनुमवसे वीतरागता होती है,और वही ( वीतरागता ही) जैन
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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