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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४५१ धारण किये हुए; भवभ्रमण करते और दुख उठाते हुए ससारी जीवात्माओको सर्वथा कर्मबन्धनसे रहित अवद्धस्पृष्टादिके रूपमै उल्लेखित करता है और उन्हे पूर्णज्ञान तथा आनन्दमय बतलाता है, जो कि प्रत्यक्षके विरुद्ध ही नही, किन्तु आगमके भी विरुद्ध है-आगममें आत्माके साथ कर्मवन्धनका बहुत विस्तारके साथ वर्णन है। जिसका कुछ सूचन कुन्दकुन्दके समयसारादि ग्रन्थोमें भी पाया जाता है। यहाँ प्रसगवश इतना और प्रकट किया जाता है कि शुद्ध या निश्चयनयको द्रव्यार्थिक और व्यवहारनयको पर्यायाथिकनय कहते हैं। ये दोनो मूलनय पृथक् रहकर एक दूसरेके वक्तव्यको किस दृष्टिसे देखते हैं और उस दृष्टिसे देखते हुए सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि, इसका अच्छा विवेचन श्रीसिद्धसेनाचार्यने अपने सन्मतिसूत्रकी निम्न गाथाओमें किया है। दव्यट्ठिय वत्तव्यं अवत्थु णियमेण पजवणयस्त । तह पजवत्थ अवत्थुमेव दवठियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जंति वियंति य भावा पजवणयस्स । दव्यठ्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पण्णमविणछ ।।११।। दव्य पज्जव-विउयं दव्व-विजुत्ता य पज्जवा णत्थि।। उप्पाय-ट्टिइ-भगा होदि दवियलक्खण एवं ॥१२॥ एए पुण सगहओ पाडिक्कमलक्खण दुवेण्हं पि । तम्हा मिच्छदिछी पत्तेय दो वि मूलणया ॥१३॥ इन गाथाओमे बतलाया है कि-'पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमें द्रव्याथिकनयका वक्तव्य ( सामान्य ) नियमसे अवस्तु है। इसी तरह द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमें पर्यायार्थिक नयका वक्तव्य (विशेप) अवस्तु है । पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिमे सब पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं। द्रव्याथिकनयकी दृष्टिमे नं कोई पदार्थ कभी उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता MHAN
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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