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________________ ४५० युगवीर-निवन्धावली हो, यह भी प्रदर्शित किया गया है कि उन भेदोंके कारण मुनियोके मूलगुणोमे भी अन्तर रहा है। , दूसरे जिनवाणीके जो द्वादश अग हैं उनमे अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण और दृष्टिवाद जैसे कुछ अग ऐसे हैं जो सब तीर्थकरोकी वाणीमें एक ही रूपको लिये हुए नही हो सकते । ____तीसरे, विविध नयभगोको आश्रय देने और स्याद्वादन्यायको अपनानेके कारण जिनशासन सर्वथा एक रूपमे स्थिर नही । रहता-वह एक ही बातको कही कभी निश्चय नयकी दृष्टिसे कथन करता है तो उसीको अन्यत्र व्यवहारतयकी दृष्टिसे कथन करनेमे प्रवृत्त होता है और एक ही विपयको कही गौण रखता है तो दूसरी जगह उसीको मुख्य बनाकर आगे ले आता है। एक ही वस्तु जो एक नयदृष्टिसे विधिरूप है वही उसमे दूसरी नयदृष्टिसे निषेधरूप भी है । इसी तरह जो नित्यरूप है , वही अनित्यरूप भी है और जो एक रूप है वही अनेकरूप भी है। इसी सापेक्ष नयवादमे उसकी समीचीनता सनिहित और सुरक्षित रहती है, क्योकि वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक हैं। इसीसे उसका व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ या असत्यार्थ नहीं होता। 'यदि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ होता तो श्री जिनेन्द्रदेव उसे अपनाकर उसके द्वारा मिथ्या उपदेश क्यो देते ? जिस व्यवहारनयके उपदेश अथवा वक्तव्यसे सारे जैनशास्त्र अथवा जिनागमके अग भरे पडे हैं वह तो निश्चयनयकी दृष्टिमे 'अभूतार्थ है, जबकि व्यवहारनयकी दृष्टिमे वह शुद्धनय या निश्चयनय भी अभूतार्थ-असत्यार्थ है जोकि वर्तमानमे अनेक प्रकारके सुदृढ कर्मबन्धनोसे बंधे हुए, नाना प्रकारकी परतन्त्रताओको - ~
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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