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________________ ४३० युगवीर-निवन्धावली है-सशयज्ञानी तो असख्याते समवसरणमे जाते हैं और अधिकाश अपनी-अपनी शड्डाओका निरसन करके बाहर आते है बल्कि उन मुश्तभा प्राणियोका वाचक है जो वाह्यवेषादिके कारण अपने विषयमै शङ्कनीय होते हैं अथवा कपटवेषादिके कारण दूसरोके लिये भयङ्कर ( dangerous, risky ) हुआ करते हैं। ऐसे प्राणी भी समवसरण-सभाके किसी कोठेमे विद्यमान नही होते हैं। __तीसरे नम्बरपर अध्यापकजीने सम्पादक जेनमित्रजीका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है : "समोशरणमे मानवमात्रके लिये जानेका पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णका अर्थात् जातिका चाण्डाल ही क्यो न हो।" इसपर टीका करते हुए अध्यापकजीने केवल इतना ही लिखा है-"सम्पादक जैनमित्रजी अपनेसे विरुद्ध विचारवालेको पोगापन्थी बतलाते हैं और अपने लेख द्वारा समोशरणमे चाण्डालको भी प्रवेश करते हैं । वलिहारी आपकी बुद्धिकी।" इससे सम्पादक जैनमित्रजी बहुत सस्ते छूट गये हैं। नि सन्देह उन्होने बडा गजव किया जो अध्यापकजी जैसे विरुद्ध विचारवालोको 'पोगापन्थी' बतला दिया। परन्तु अपने रामकी रायमे अध्यापकजीने उससे भी कही ज्यादा गजब किया है जो समवसरणमे चाण्डालको भी प्रवेश करानेवालेकी बुद्धिपर 'वलिहारी' कह दिया || क्योकि पद्मपुराणके कर्ता श्रीरविषेणाचार्यने व्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण बतलाया है-दूसरे सत्शूद्रादिकोकी तो बात ही क्या है ? और स्वय ही नही बतलाया, बल्कि देवोने--अर्हन्तो तथा गणधरोने-बतलाया है, ऐसा स्पष्ट निर्देश क्यिा है
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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