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________________ समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश ४२९ स्पष्ट होता है कि वे पहले सम्यग्दर्शनसे रहित मिथ्यादृष्टि थे - ते सम्यग्दर्शनं केचित्संयमासंयम परे। संयम केचिदायाताः संसारावासभीरवः ॥३०७॥ भगवान् आदिनाथके समवसरणमे मरीचि मिथ्यादृष्टिके रूपमे ही गया, जिनवाणीको सुनकर उसका मिथ्यात्व नही छूटा, और सब मिथ्या तपस्वियोकी श्रद्धा बदल गई और वे सम्यक् तपमे स्थित होगये, परन्तु मरीचिकी श्रद्धा नही बदली और इस लिये अकेला वही प्रतिबोधको प्राप्त नही हुआ, जैसा कि जिनसेनाचार्य के आदिपुराण और पुष्पदन्त-कृत महापुराणके निम्न वाक्योसे प्रकट है"मरीचि चाः सर्वेऽपि तापसास्तपसि स्थिताः।" -आदिपुराण २४-८२ "दंसणमोहणीय-पडिरुद्धउ एक्वु मरीइ णेय पडिवुद्धउ" -महापुराण, सधि ११ वास्तवमे वे ही मिथ्यादृष्टि समवसरणमे नही जा पाते हैं जो अभव्य होते हैं-भव्य मिथ्यादृष्टि तो असख्याते जाते हैं और उनमेसे अधिकाश सम्यग्दृष्टि होकर निकलते हैं-और इस लिये 'मिथ्यादृष्टिः' तथा 'अभव्योऽपि' पदोका एक साथ अर्थ किया जाना चाहिये, वे तीनो मिलकर एक अर्थके वाचक हैं और वह अर्थ है- 'वह मिथ्यादृष्टि जो अभव्य भी है। धर्मसंग्रहश्रा०के उक्त श्लोकका मूलस्रोत तिलोयपण्णत्तीको निम्न गाथा है, जिसमे 'मिच्छादिठ्ठिअमन्वा' एक पद है जो एक ही प्रकारके व्यक्तियोका वाचक हैमिच्छाइट्ठिअभव्वा तेसुमसण्णी ण होति कइआई। तह य अणझवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा ॥४-९३२ इसी तरह 'संदिग्ध.' पद भी सशयज्ञानीका वाचक
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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