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________________ युगवीर- निबन्धावली समवसरणमे सुर-असुर, नर- तिरयञ्च सभी थे, सो सवके समीप सर्वज्ञने मुनिधर्मका व्याख्यान किया, सो मुनि होनेको समर्थ जो मध्य तिनमे केईक नर ससारसे भयभीत परिग्रहका त्याग कर मुनि भये शुद्ध है जाति कहिये मातृपक्ष कुल कहिये पितृपक्ष जिनके ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सैकडो साधु भये ।।१३१,१३२।। ...ओर कैएक मनुष्य चारो ही वर्णके पञ्च अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षा व्रत धार श्रावक भये । और चारो वर्णकी कईएक स्त्री श्राविका भई ॥ १३४|| और सिंहादिक तिर्यंच बहुत श्रावकके व्रत धारते भये, यथाशक्ति नेमविषै तिष्ठे ।। १३५ ।।” ४२२ इस कथनको लेकर ही मैंने जिनपूजाधिकारमीमासाके उक्त लेखाशकी सृष्टि की थी । पाठक देखेंगे, कि इस कथनके आशयके विरुद्ध उसमे कुछ भी नही है । परन्तु अध्यापकजी इस कथनको शायद मूलग्रन्थके विरुद्ध समझते हैं और इसीलिये संस्कृत हरिवशपुराणपरसे उसे सत्य सिद्ध करनेके लिये कहते हैं । उसमे भी उनका आशय प्राय उतने ही अशसे जान पडता है जो शूद्रोंके समवसरणमे उपस्थित होकर व्रत ग्रहणसे सम्बन्ध रखता है और उनके प्रकृत चैलेज-लेखका विषय है । अतः उसीपर यहाँ विचार किया जाता है और यह देखा जाता है कि क्या पडित दौलतरामजीका वह कथन मूलके आशय के विरुद्ध है | श्रावकीय व्रतोके ग्रहणका उल्लेख करनेवाला मूलका वह वाक्य इस प्रकार है - पंचधाऽणुव्रतं केचित् त्रिविधं च गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं तत्र स्त्री-पुरुषा दधुः ॥१३४॥ इसका सामान्य शब्दार्थं तो इतना ही है कि 'समवसरण - स्थित कुछ स्त्रीपुरुपोंने पंच प्रकार अणुव्रत, तीन प्रकार गुणवत
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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