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________________ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर लेख ३८१ कर्मभूमिकमे म्लेच्छ-खण्डोके मनुष्य आ सकते थे और अकर्मभूमिकमे भोगभूमियोका समावेश हो सकता था । इसीसे जयधवलकारको 'कर्मभूमिक' और 'अकर्मभूमिक' शब्दोके प्रकरणसगत वाच्यको स्पष्ट कर देनेकी जरूरत पडी और उन्होने यह स्पष्ट कर दिया कि कर्मभूमिकका वाच्य 'आर्यखण्डज' मनुष्य और अकर्मभूमिक का ' म्लेच्छखण्डज' मनुष्य है-साथ ही यह भी बता दिया कि म्लेच्छखण्डज कन्यासे आर्य पुरुष के सयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाली सन्तान भी एक प्रकारसे म्लेच्छ तथा अकर्मभूमिक है, उसका भी समावेश 'अकर्मकभूमिक' शब्दमे किया जा सकता है । इसीलिये नेमिचन्द्राचार्यने यह सब समझकर ही अपनी उक्त गाथामें कर्मभूमिक और अकर्मभूमिकके स्थान पर क्रमश: 'अज्ज' तथा 'मिलेच्छ' शब्दोका प्रयोग दूसरा कोई विशेषण या शर्त साथमे जोडे बिना ही किया है, जो देशामर्शक सूत्रानुसार 'आर्यखण्डज' तथा 'म्लेच्छखण्डज' मनुष्यके वाचक हैं, जैसा कि टीकामें भी प्रकट किया गया है । ऐसी हालत मे यहाँ ( लब्धि - सारमे ) उस प्रश्न की नौबत नही आती जो जयधवलमे म्लेच्छखण्डज मनुष्यके अकर्मभूमिक भावको स्पष्ट करने पर खडा हुआ था और जिसका प्रारंभ 'जइ एव ' - - 'यदि ऐसा है', -- इन -- शब्दोके साथ होता है तथा जिसका समाधान वहाँ उदाहरणात्मक हेतुद्वारा किया गया गया है, फिर भी टीकाकारने उसका कोई पूर्व सम्बन्ध व्यक्त किये विना ही उसे जयधवल परसे कुछ परिवर्तनके साथ उद्धृत कर दिया है ( यदि टीकाका उक्त मुद्रित पाठ ठीक है तो ) और इसीसे टीकाके पूर्व भागके साथ वह कुछ असगतसा जान पडता है । इस तरह यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्रों, वीरसेन - जिनसेनाचार्यों
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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